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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती प्रवेशशक्तियोगान्न तस्य तावतावकाशदानसामर्थ्य हीयत इति । तमु लोकाकाशेऽवगाहिनामभावादवगाहस्य तल्लक्षणस्याभावस्तदभावाच्च लक्ष्यस्य नभसोप्यभावप्रसङ्गः इति चेन्न-स्वभावापरित्यागात् । यथा हंसस्यावगाहकस्याभावेप्यवगाहत्वं जलस्य न हीयते तथाऽवगाहिनामभावेऽपि नालोकाकाशस्यावकाशदानसामर्थ्यहानिरित्यलमतिप्रपञ्चेन । उपकारप्रकरणाभिसम्बन्धेन शरीराद्यारम्भकसूक्ष्मपुदगलास्तित्वसिद्धिनि बन्धनं कार्यमाह
शरोरवाङमनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १६ ॥ शरीरं च वाक्च मनश्च प्राणश्चापानश्च शरीरवाङ मन प्राणापानाः । उपकार इत्यनुवर्तते। ततश्च वक्ष्यमाणलक्षणानां पुद्गलानामुपादानसहकारिरूपाणां शरीरादयः कार्यरूपा अस्तित्वं साधय
परस्पर में प्रवेश करने की शक्ति रहती है। स्थूल पदार्थ के आपस में घात करने मात्र से कोई आकाश की अवकाश दान शक्ति नष्ट नहीं होती।
शंका-इसप्रकार आकाश में सर्वथा अवकाश दान शक्ति मानते हैं तो आलोकाकाश में अवगाह लेने वाले जीवादि द्रव्यों का अभाव होने के कारण अवगाह लक्षण का अभाव होगा और उससे लक्ष्यभूत आकाश के अभाव का भी प्रसंग प्राप्त होता है ।
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योंकि अलोकाकाश में स्वभाव का त्याग नहीं है, देखिये ! जैसे अवगाहक-अवगाह लेने वाले हंस का अभाव होने पर भी जल का अवगाहत्व नाम का स्वभाव नष्ट नहीं होता, ठीक ऐसे ही अवगाह लेने वाले जीवादि के अभाव होने पर भी अलोकाकाश का अवकाशदान सामर्थ्य नष्ट नहीं होता। इस विषय का अब अधिक विस्तार नहीं करते ।
उपकार का प्रकरण चल रहा है उसके संबंध में अब शरीर आदि के उत्पत्ति के कारणभूत जो सूक्ष्म पुद्गल हैं उनके अस्तित्व को सिद्ध करने में जो हेतु है, उस उपकार कार्य को कहते हैं अर्थात् पुद्गलों के कार्यभूत उपकार को बतलाते हैं
सूत्रार्थ-शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास ये पुद्गलद्रव्य के उपकार हैं ।
शरीर आदि पदों में द्वन्द्व समास जानना । उपकार शब्द का अनुवर्तन है। उससे जिनका लक्षण आगे कहेंगे और जो उपादान तथा सहकारी कारण स्वरूप हैं ऐसे पुद्गलों के अस्तित्व को कार्य रूप शरीरादि पदार्थ सिद्ध करते हैं। यह संक्षेप