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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
चेन्न—कालद्व ैविध्यप्रदर्शनार्थत्वात्प्रप्रञ्चस्य । द्विविधो हि काल :- परमार्थकालो व्यवहारकालश्चेति । तत्र परमार्थकालो वर्तनालिङ्गो गत्यादीनां धर्मादिवद्वर्तनाया उपकारकः । तत्स्वरूपमुच्यतेयावन्तो लोकाकाशे प्रदेशास्तावन्तः कालाणवः परस्परं प्रत्यबन्धा एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे एकैकवृत्त्या लोकव्यापिनो मुख्योपचारप्रदेशकल्पनाविरहा निरवयवा विनाशहेत्वभावान्नित्याः परप्रत्ययोत्पादविनाश सद्भावादनित्याश्च । सूचीसूत्रमार्गाकाशच्छिद्रवत्परिच्छन्न मूर्तित्वेऽपि रूपादियोगाभावादमूर्ताः, प्रदेशा न्तरसंङक्रमाभावान्निष्क्रियाश्च भवन्ति । व्यवहारकालस्तु परिरणामादिलक्षणः क्रियाविशेषः कालवर्तनया लब्धकालव्यपदेशः कुतश्चित्परिच्छिन्नोऽन्यस्य परिच्छेदहेतुः । स च परस्परापेक्षया भूतादि व्यपदेशानुभवनात्रिविधः सिद्धः । यथा वृक्षपंक्तिमनुसरतो देवदत्तस्यैकैकतरु प्रति प्राप्तः प्राप्नु
समाधान - व्यर्थ नहीं है, क्योंकि काल के दो भेद बतलाने हेतु परिणाम आदि पदों का ग्रहण हुआ है । काल दो प्रकार का है, परमार्थ काल और व्यवहार काल । उनमें परमार्थ काल वर्त्तना लिंग वाला है, जैसे धर्मादि द्रव्य गति आदि से उपकार करते हैं, वैसे काल द्रव्य वर्त्तना से उपकारक है । उसका स्वरूप बतलाते हैं- जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं उतने कालाणु - कालद्रव्य परस्पर में संबद्ध हुए बिना ही एक एक आकाश प्रदेश पर एक एक रूप से स्थित हैं और इसी कारण लोक में व्याप्त हैं । मुख्य और उपचार रूप से प्रदेश बहुत्व कल्पना से रहित होने के कारण निरवयव हैं, इनका विनाश कभी नहीं होता अतः नित्य हैं और पर निमित्तक उत्पाद व्यय का सद्भाव होने से अनित्य भी हैं । सूई के धागा जाने के आकाश मार्ग के छिद्र के समान परिच्छिन्न मूर्ति होने पर भी रूपादि से रहित होने के कारण अमूर्त है । अर्थात् जैसे सूई का धागा जाने से मार्ग परिच्छिन्न होता है, अमूर्त्त होते हुए भी सूई के छिद्र का आकाश सूई के नोक बराबर मूर्त्त हो जाता है । उतने स्थान का कालाणु भी परिच्छिन्न होने से मूर्त्तसा है किन्तु रूपादि के अभाव में वास्तव में अमूर्त्त ही है ।
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इन कालाणुओं में कभी प्रदेशान्तर संक्रमण नहीं होता अतः वे निष्क्रिय हैं । परिणाम आदि लक्षण वाला व्यवहार काल है । यह क्रिया विशेष रूप काल की वर्तना से उसे काल संज्ञा प्राप्त होती है । किसी से नापा जाकर या ज्ञात होकर अन्य किसी के परिच्छेद का ( नाप का या जानने का ) हेतु होता है । वह व्यवहार काल परस्पर की अपेक्षा से भूत, भावी आदि संज्ञा के अनुभवन से तीन प्रकार का सिद्ध होता है । जैसे वृक्षों की पंक्ति के अनुसार गमन करने वाले देवदत्त के एक एक वृक्ष के प्रति " प्राप्त हो चुका, प्राप्त हो रहा है और प्राप्त होगा" इसप्रकार की