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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती प्रेर्यमाणाः पुद्गला वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति पुद्गलोपादाना द्रव्यवाक्कथ्यते । तथा हि-द्रव्यवाक्पुद्गलपर्यायः सामान्यविशेषत्वे सति बाह्यन्द्रियविषयत्वाद्गन्धादिवत् । बाह्य न्द्रियं तु वाचो ग्राहक श्रोत्रमेव न चक्षुरादि । यथा घ्राणग्राह्य गन्धद्रव्ये तदविनाभाविनः सन्तोऽपि रसादयो घ्राणेन नोपलभ्यन्ते तथा श्रोत्रविषयः शब्दोऽपि शेषेन्द्रियैर्न गृह्यते । पुनः कस्माद्वाङन गृह्यत इति चेन्नविशीर्णत्वात्तडिद्रव्यवत् । यथा तडिद्रव्यं चक्षुषोपलब्धं विष्वग्विशीर्णत्वात् पुनर्न दृश्यते तथा श्रोत्रेणोपलब्धा वागपि विष्वग्विशीर्णा पुनर्न श्रूयत इत्यदोषः । स्यान्मतं ते अमूर्तः शब्दोऽमूर्ताकाशगुण त्वादिति । तन्न । किं कारणम् ? मूर्तिमद्ग्रहणप्रेरणावरोधदर्शनात् । मूर्तिमता तावदिन्द्रियेण शब्दो गृह्यते । न वामूर्तः कश्चिदिन्द्रियग्राह्योऽस्ति । प्रेर्यते च मूर्तिमता पवनेनार्कतूलराशिवत् दिगन्तरस्थेन
रूप परिणमन कर जाते हैं वे पुद्गल रूप वचन द्रव्य वाक् कहलाती है। द्रव्यवाग् पद्गल रूप है इस बात को अनुमान द्वारा सिद्ध करते हैं-द्रव्यवाग् पुद्गल की पर्याय है [ प्रतिज्ञा ] क्योंकि वह सामान्य विशेष रूप होकर बाह्यन्द्रिय का [कर्णेन्द्रिय का] विषय है [ हेतु ] जैसे गंधादिक पदार्थ बाह्य न्द्रिय का विषय होने से पुद्गल हैं। वचन का ग्राहक बाह्य न्द्रिय तो कर्ण है चक्षु आदि इन्द्रिय वचन को ग्रहण नहीं करती, जैसे कि घ्राण द्वारा ग्राह्य गंध द्रव्य में उस गंध के अविनाभावी रसादिक विद्यमान रहते हुए भी घ्राण द्वारा ग्रहण नहीं होते । वैसे श्रोत्र का विषयभूत शब्द भी शेष इन्द्रियों से ग्रहण नहीं होता।
प्रश्न-वचन, वाणी या वाग् को एक बार ग्रहण करने के बाद पुनः उसका ग्रहण क्यों नहीं होता?
उत्तर-वह बिजली के समान विशीर्ण हो जाती है । अर्थात् जैसे बिजली नामा वस्तू नेत्र द्वारा उपलब्ध होकर सकल रूप से नष्ट हो जाती है वह पुनः नहीं दिखायी देती, वैसे कर्ण द्वारा उपलब्ध हुई वाग् भी सकल रूप से विशीर्ण-नष्ट हो जाती है, वह पुनः सुनायी नहीं देती। इसतरह इसमें दोष नहीं है ।
शंका-शब्द अमूर्त होता है, क्योंकि वह अमूर्त आकाश का गुण है ? . समाधान-ऐसा नहीं कहना, शब्द मूर्तिक द्वारा ग्रहण होता है, वह मूर्तिक से प्रेरित होता है एवं मूर्तिक द्वारा रुक भी जाता है । देखिये ! मूत्तिमान इन्द्रिय द्वारा शब्द ग्रहण किया जाता है, जो अमूर्त होता है वह इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होता। तथा शब्द मूर्तिक वायु द्वारा प्रेरित होकर अर्कतूल के समान [ आकड़े की रुई के