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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती नोऽपि दृष्टाः तथाऽल्पेऽपि लोकाकाशेऽनन्तानामनन्तानन्तानां च जीवपुद्गलानामवस्थानमिति नास्ति विरोधः । पुद्गलानामित्यविशेषवचनात्परमाणोरपि सप्रदेशत्वप्रसङ्ग तत्प्रतिषेधार्थमाह
नाणोः ॥ ११॥ अणोः प्रदेशा न सन्तीति वाक्यशेषः । कुतो न सन्तीति चेदुच्यते-प्रदेशमात्रत्वादाकाशैकप्रदेशवत् । तस्य द्वयादिसङ्ख्य यासङ्ख्ययाऽनन्तप्रदेशभेदाभ्युपगमे परमाणुव्यपदेशानुपपत्तेश्च । क्व पुनरवगाहो धर्मादिद्रव्याणामित्युत्सर्गतः प्राह
___ लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२॥ प्रसिद्धावधिना लोकेन परिच्छिन्नमाकाशमसङ्घय यप्रदेश लोकाकाशम् । तस्मिन् द्रव्याणामवगाहोऽवस्थानमिति वेदितव्यम् । आकाशस्य परममहत्त्वान्नान्य आधारोऽस्तीति स्वाधारं तत्प्रसिद्धम् ।
मण्डल को व्याप्त कर देते हैं, ठीक इसीप्रकार छोटे लोकाकाश में भी अनन्तानन्त तथा अनन्त जीवों और पुद्गलों का अवस्थान हो जाता है इसमें कुछ भी विरुद्ध नहीं है।
पुद्गलों के संख्यात आदि बहुत से प्रदेश होते हैं ऐसा कहने से परमाणु के भी सप्रदेशत्व प्राप्त होता है अतः उसका निषेध करने के लिये सूत्र कहते हैं
सूत्रार्थ-परमाणु के बहुत प्रदेश नहीं होते । अणु के प्रदेश नहीं होते हैं ऐसे वाक्य का सम्बन्ध कर लेना।
प्रश्न-अणु के प्रदेश क्यों नहीं होते।
उत्तर-वह एक प्रदेश मात्र रूप होता है, जैसे आकाश का एक प्रदेश । यदि परमाणु के दो आदि संख्यात असंख्यात अनन्त प्रदेश स्वीकार करेंगे तो उसकी परमाणु संज्ञा ही नहीं बनेगी।
प्रश्न-धर्मादि द्रव्यों का अवगाह कहां पर है ? उत्तर-इसको अगले सूत्र में कहते हैं
सत्रार्थ-धर्मादि द्रव्यों का लोकाकाश में अवगाह है। प्रसिद्ध अवधि [सीमा] रूप लोक से नापा गया आकाश असंख्यात प्रदेशी लोकाकाश कहलाता है । उस लोकाकाश में द्रव्यों का अवगाह अर्थात् अवस्थान पाया जाता है ऐसा जानना चाहिये । आकाश परम महा परिमाण है अतः इसका अन्य कोई आधार नहीं है, वह तो अपने