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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती वधतप्रकाशपरिमाणः प्रदीपः शरावकुडवापवरकाद्यावरणवशात्तत्परिमाणप्रकाश उपलभ्यते तथा प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यामसंखययभागादिपरिच्छित्तिवृत्तिरात्मनो वेदितव्या । अथ मतमेतत्-यदि संहरणविसर्पणस्वभावो जीवस्तहि प्रदीपादिवदेवास्यानित्यवं प्राप्नोतीति । तन्न-तथेष्टत्वात्-इष्टमेवास्मा भिरात्मनः कार्मणशरीरापादितप्रदेशसंहारविस्तारपर्यायादेशादनित्यत्वमिति । तथा प्रदीपादेः सङ्कोच विकासस्वभावत्वेऽपि रूपद्रव्यसामान्यार्थादेशान्नित्यत्ववदात्मनोऽपि द्रव्यार्थादेशान्नित्यत्वमिष्यते । न च सावयवत्वात्प्रदेशसंहारविसर्पवत् संसारिणः सदेहजीवस्य घटादिवच्छेदनभेदनादिभिः प्रदेशविसरणमस्ति । कुत इति चेदुच्यते-तस्य बन्धं प्रत्येकत्वे सत्यपि लक्षणभेदादन्यत्वमापद्यमानस्यामूर्तस्व
दीपक के प्रकाश के संकोच विस्तार में विरोध नहीं आता । अर्थात् खुले आकाश प्रदेश में रखा हुआ दीपक है उसका प्रकाश उस स्थान में फैल जाने से तत्प्रमाण रूप है और शराव, कुडव, कोठा आदि आवरण युक्त स्थान पर उक्त दीपक को रख दिया जाय तो उसका प्रकाश तत्प्रमाण हो जाता है । ठीक उसीप्रकार प्रदेशों के संकोच और विस्तार के कारण जीव असंख्येय भाग आदि में रहता है ऐसा जानना चाहिये ।
शंका-यदि जीव को संहार विसर्प स्वभाव वाला मानते हैं तो प्रदीप के समान वह अनित्य हो जायगा ?
समाधान-यह शंका व्यर्थ है, यह बात इष्ट है, हम जैन जीव को कथंचित् अनित्य मानते हैं । इसीको आगे बतलाते हैं—कार्मण शरीर के द्वारा प्राप्त हुए जो प्रदेश हैं उनमें संकोच विस्तार होने से जीव प्रदेशों में संकोच विस्तार रूप पर्याय होती है उस पर्याय दृष्टि से जीव के अनित्यपना भी स्वीकार किया है । जैसे दीपक आदि पदार्थ संकोच विस्तार स्वभाव वाले होने पर भी रूपी द्रव्य के सामान्यपने से-द्रव्यदृष्टि से नित्य स्वरूप माने जाते हैं । इसीतरह आत्मा भी द्रव्य दृष्टि से नित्य माना जाता है।
प्रश्न-संसारी जीव शरीर सहित है सावयव होने से जैसे उसमें प्रदेशों का संकोच विस्तार होता है वैसे घट आदि के समान छेदन भेदन आदि द्वारा प्रदेशों का विशरण-बिखेरना-नष्ट होना संभव होगा ?
उत्तर- ऐसा नहीं होता, बन्ध की अपेक्षा जीव और कर्म तथा शरीरादि में एकत्व होने पर भी लक्षण भेद की अपेक्षा अनेकत्व ही है। क्योंकि यह जीव बंधन अवस्था में भी अपने अमूर्त स्वभाव का त्याग नहीं करता है । दूसरी बात यह है कि जीव के