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द्वितीयोऽध्यायः
[ ११९ औपपादिका देवनारकाः । चरमोऽन्त्यः । उत्तम उत्कृष्ट: । देहः शरीरं । चरम उत्तमो देहो येषां ते चरमोत्तमदेहास्तज्जन्मनि मोक्षार्हाः। असङ्ख्य यानि असङ्ख्यातमानविशेषपरिच्छिन्नानि वर्षाण्यायुर्येषां ते असंङ्ख्य यवर्षायुषः पल्याधुपमाप्रमाणगम्यायुषो भोगभूमिजास्तिर्यङ मनुष्या इत्यर्थः। औपपादिकाश्च चरमोत्तमदेहाश्चाऽसंङ्खये यवर्षायुषश्च औपपादिकचरमोत्तमदेहासङ्खये यवर्षायुषः ।
जिनके वे चरमोत्तम कहे जाते हैं अर्थात् उसी जन्म में मोक्ष जाने वाले । असंख्यात माप विशेष से जिनकी आयु के वर्ष नापे जाते हैं वे असंख्येय वर्ष आयुवाले जीव हैं। अर्थात् पल्य आदि उपमा प्रमाण द्वारा जिनकी आयु गम्य होवे वे भोगभूमिज मनुष्य तिर्यंच असंख्येय वर्षायुष्क होते हैं। सूत्रस्थ औपपादिक आदि पदों का द्वन्द्व समास जानना चाहिये । विष, शस्त्र, वेदना आदि बाह्य निमित्त द्वारा जो ह्रस्व-कम किया जाता है वह अपवर्त्य कहलाता है। अपवर्त्य है आयु जिनके वे अपवर्त्य आयुष्क हैं। जिन जीवों के ऐसा अपवर्त्य नहीं होता वे अनपवर्त्य आयु वाले हैं। वे औपपादिक आदि जीव अपवर्तन-घात युक्त आयु धारी नहीं होते ऐसा नियम है । उक्त जीवों को छोड़कर शेष संसारी अपवर्तन आयुष्क होते हैं ऐसा सामर्थ्य से ज्ञात होता है। इस अपवर्तन योग्य आयु के कारण ही प्राणियों के अकाल मरण होना निश्चित होता है । तथा आयु के अपवर्त्य के प्रतीकार आदि के अनुष्ठान की अन्यथानुपपत्ति से भी निश्चय होता है कि अकाल मरण संभव है। अभिप्राय यह है कि यदि अकाल मरण नहीं होता तो आयु घात को रोकने के लिये चिकित्सा आदि का अनुष्ठान नहीं हो सकता था, किन्तु चिकित्सा आदि होती अवश्य है इसीसे अकाल मरण की सिद्धि होती है, अब इस विषय में अधिक नहीं कहते ।
इस दूसरे अध्याय में जीव के औपशमिक आदि ५३ भाव बतलाये हैं तथा जीवका लक्षण, इन्द्रियरूप साधन उनके विषय तथा उन्हीं इन्द्रियों के स्वामी के भेद कहे गये हैं, पुनश्च गति [ विग्रहगति ] जीवों के जन्म भेद, योनि, शरीर और अनपवर्त्य आयु इन सब ही का प्रतिपादन किया गया है।
विशेषार्थ-संसारी जीवों की आयु दो प्रकार से पूर्ण होती है एक तो जितने काल को लेकर बँधी थी तदनुसार फलती है और एक बाह्य प्रबल निमित्त के वश असमय में उदीर्ण होकर फलती है। देव नारकी चरम शरीरी और भोगभूमिज जीवों