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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती
तिर्यग्योनिजानां च ॥ ३६ ।।
तिर्यग्गतिनामकर्मोदयजनितत्वात्तिरोञ्चतीति तिर्यञ्चो जीवविशेषा रूढाः । योनिरत्र जन्मोच्यते । तिरश्चां योनिस्तिर्यग्योनिः । तिर्यग्योनौजातास्तिर्यग्योनिजास्तेषां तिर्यग्योनिजानाम् । चशब्दः प्रकृताभिसम्बन्धार्थः । तेन तिर्यग्योनिजानां चोत्कृष्टा भवस्थितिस्विपल्योपमा । जघन्यान्तर्मुहूर्ता । मध्येऽनेकविध-विकल्प इति चात्र वेदितव्यम् । तिरश्चां पुनरपि विशेषप्रतिपादनार्थमिदमुच्यते-तिर्यञ्चस्त्रिविधा-एकेन्द्रियविकलेन्द्रिय–पञ्चेन्द्रियभेदात् । एकेन्द्रिया-विकलेन्द्रियाः पंचेन्द्रियाश्चेति त्रिविधास्तिर्यञ्चो वेदितव्याः । द्वादश द्वाविंशति दश सप्त त्रि-वर्षसहस्राण्येकेन्द्रियाणामुत्कृष्टा स्थितियथासम्भवं त्रीणि रात्रिंदिवानि च । एकेन्द्रियाः पञ्चविधाः पृथिवीकायिका, अप्कायिकास्तेजस्कायिका, वायुकायिका, वनस्पतिकायिकाश्चेति । तत्र पृथिवीकायिका द्विधा-शुद्धपृथिवीकायिकाः खरपृथिवीकायिकाश्चेति । तत्र शुद्धपृथिवीकायिकानामुत्कृष्टा स्थितिदिशवर्षसहस्राणि । खरपृथिवी
जिसप्रकार मनुष्यों की जघन्य तथा उत्कृष्ट स्थिति है उसीप्रकार तिर्यंचों की भी होती है ऐसा अगले सूत्र द्वारा कहते हैं
सत्रार्थ-तिर्यंचों की स्थिति [ आयु ] भी मनुष्यवत् उत्कृष्ट तीन पल्य और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है।
तिर्यंच गति नाम कर्म के उदय से तिरछे-कुटिल होते हैं वे तिर्यंच जीव कहलाते हैं, तिरोञ्चति इति तिर्यंचः यह तिर्यंच शब्द की निष्पत्ति है । यह शब्द तिर्यंच जीवों में रूढ है। यहां जन्म को योनि कहते हैं । तिर्यंच की योनि में होने वाले तिर्यंच योनिज हैं। च शब्द प्रकृत अर्थ के संबंध के लिये है। तिर्यंचों की भी उत्कृष्ट भव स्थिति तीन पल्य की है, तथा जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । मध्य के अनेक भेद हैं ऐसा यहां जानना चाहिये । अब तिर्यञ्च के विषय में विशेष प्रतिपादन करते हैं-तिर्यञ्च के तीन भेद हैं-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । एकेन्द्रियों की उत्कृष्ट स्थिति बारह हजार वर्ष, बावीस हजार वर्ष, दश हजार वर्ष, सात हजार वर्ष, तीन हजार वर्ष तथा तीन दिन रात की यथा-संभव जाननी चाहिये । इसीको बताते हैंएकेन्द्रिय पांच प्रकार के हैं पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । पृथिवीकायिक के दो भेद हैं शुद्ध पृथिवीकायिक और खर पृथिवीकायिक । शुद्ध पृथिवीकायिकों की उत्कृष्ट आयु बारह हजार वर्ष की है । खर पृथिवी