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चतुर्थोऽध्यायः
[२१९ तिभिरनुपलब्वेरपवर्तनाच्चेति । ज्योतिषां गतिस्त्यिनुपलब्धेरिति चेन्न-प्रोक्तज्योतिष्कविशेषा गतिमन्तो देशान्तरप्राप्तय पलम्भाद्देवदत्तादिवदित्यनुमानतस्तत्सिद्धेरित्यलं प्रसङ्गेन। मनुष्यलोकादन्यत्र किमवस्थास्त इत्याह
बहिरवस्थिताः ॥१५॥ नृलोकाबहियोतिष्काः स्थिरीभूता एव सन्तीत्यारब्धसूत्रव्याख्यानसामर्थ्यान्नृलोकादन्यत्र ज्योतिषामस्तित्वावस्थानसिद्धेरप्रदक्षिणकादाचित्कगतिनिवृत्तिः सिद्धा भवति । चतुर्थनिकायस्य सामान्यसंज्ञाद्वारेणाधिकारसंसूचनार्थमाह
क्योंकि अकेली गति अनलब्ध है और गति के बिना अकेली ज्योति सदा एकसी रहेगी, अतः निश्चय होता है कि केवल गति से काल का निर्णय नहीं हो सकता क्योंकि वह पायी नहीं जाती और गति के बिना केवल ज्योति से भी काल का निर्णय संभव नहीं, क्योंकि परिवर्तन के बिना वह सदा एकसी रहेगी।
शंका-ज्योतिष्कों की गति नहीं है, क्योंकि वह उपलब्ध नहीं होती ?
समाधान-यह शंका ठीक नहीं है । देखिये ! ज्योतिष्क की गति को अनुमान से सिद्ध करते हैं-वे कहे गये ज्योतिष्क विशेष [ ज्योतिष्क देवों के विमान ] गमन शील होते हैं [ पक्ष ] क्योंकि वे देश से देशान्तर में प्राप्त होते हैं जैसे देवदत्तादि पुरुष देश से देशान्तर में प्राप्त होने से गतिशील माने जाते हैं वैसे ही सूर्य आदि ज्योतिष्क एक देश से दूसरे देश में उपलब्ध होते हैं अतः अवश्य ही गतिशील हैं। अब इसमें अधिक नहीं कहते ।
प्रश्न- मनुष्य लोक से अन्यत्र पाये जाने वाले ज्योतिष्क किस प्रकार के हैं ? उत्तर-अब इसी को सूत्र द्वारा कहते हैंसूत्रार्थ- मनुष्य लोक से बाहर जो ज्योतिष्क हैं वे अवस्थित ( स्थिर ) हैं ।
नलोक से बाह्य के ज्योतिष्क स्थिर हैं, आरब्ध सूत्र के व्याख्यान के सामर्थ्य से ही यह सिद्ध होता है किन्तु मनुष्य लोक से अन्यत्र ज्योतिष्कों का अस्तित्व सिद्ध करना है तथा वे प्रदक्षिणा नहीं करते एवं कदाचित भी गति नहीं करते यह सिद्ध करने के लिये इस सूत्र का अवतार हुआ है ।