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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती शुक्रशोणितयोर्गरणं मिश्रणं गर्भः । उपत्युपपद्यते तस्मिन्नित्युपपाद:-देवनारकोत्पत्तिस्थानविशेष उच्यते । त एव सम्मुर्छनादयस्त्रयः प्रकाराः सामानाधिकरण्येन जन्मेत्युच्यन्ते-प्रकारतद्वतोः कथंचिदभेदात् । जन्माधिकरणभूतयोनिविशेषप्रतिपत्त्यर्थमाह
सचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः ॥ ३२ ॥ चैतन्यविशेषपरिणामश्चित्तम् । सह चित्तेन वर्तत इति सचित्तः। शीत इति स्पर्शविशेषः शुक्लादिशब्दवद्गुणगुणिवचनत्वात्तद्युक्त द्रव्यमपि ब्रूते । सम्यग्वृतः संवृतो दुरुपलक्ष्यः प्रदेशः । सचित्तश्च शीतश्च संवृतश्च सचित्तशीतसंवृताः। सहेत रैर्वर्तन्त इति सेतराः । सप्रतिपक्षा अचितोष्णविवृता उच्यन्ते । उभयात्मका मिश्राः चशब्द एकैकसमुच्चयार्थः । एकैकं प्रति एकशः । एतस्य
गरण-मिश्रण होना गर्भ है । निकट आकर उत्पन्न होना उपपाद है । अर्थात् देव और नारकी के उत्पत्ति स्थान विशेष को उपपाद कहते हैं उस उपपाद स्थान-शय्या विशेष पर जाकर जन्म लेना उपपाद जन्म कहलाता है। इसप्रकार ये सम्मूर्छन आदि तीन प्रकार सामानाधिकरण्य से जन्म कहलाते हैं, क्योंकि प्रकार और प्रकारवान में कथंचित् अभेद होता है [ जन्म प्रकारवान और संमूर्छन आदि प्रकार कहलाते हैं ।
जन्म के आधारभूत जो योनि है उसकी प्रतिपत्ति के लिये कहते हैं
सत्रार्थ-सचित्त, शीत, संवृत और इनसे इतर अचित्त, उष्ण विवृत ये छह तथा इनके मिश्रण से तीन मिश्र ऐसी उन जन्मों की नौ योनियां होती हैं।
चैतन्य विशेष के परिणाम को चित्त कहते हैं उस चित्त से जो सहित है वह सचित्त कहलाता है । शीत एक स्पर्श जाति है । जैसे शुक्ल आदि गुणवाची शब्द गुणी द्रव्य के भी वाचक होते हैं वैसे ही शीत शब्द गुण वाचक होकर भी शीत गुण वाले द्रव्य को कहता है । जो भलीप्रकार ढका हो वह संवृत अर्थात् दुरुपलक्ष्य प्रदेश-दृष्टि के अगोचर स्थान को संवृत कहते हैं। सचित्त आदि में द्वन्द्व समास है । वे सचित्त आदि इतर अर्थात् प्रतिपक्ष युक्त हैं । अचित्त, उष्ण और विवृत से युक्त हैं इनका सेतर शब्द से ग्रहण होता है। उभयरूप मिश्र होता है च शब्द एक एक के समुच्चय के लिये है, इस एक शब्द में वीप्सा अर्थ में शस् प्रत्यय जोड़ा है जिससे कि क्रम क्रम से मिश्रण का बोध हो। उन जन्म विशेषों की योनि तद्योनि इसप्रकार "तद्योनयः" पदमें