________________
११६ ]
सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ कथितम् । यत्पुनः सुखदुःखानुभवनकार्योत्पत्तौ कार्मणस्य सहकारि तत् सर्वसंसारिणां साधारणरूपं तैजसं कथ्यते । इदानीमाहारकस्य स्वरूपस्वामिविशेषप्ररूपणार्थमाह
शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥ ४६ ।। तत्राहारककाययोगाख्यशुभक्रियायाः कारणत्वाच्छुभमाहारकं व्यपदिश्यते-यथाऽन्नं वै प्राणा इति । विशुद्धस्य पुण्यकर्मणः कार्यत्वाद्विशुद्धमिति व्यपदिश्यते । यथा तन्तवः कासि इति । व्याघातः प्रतिबन्धः । न विद्यते व्याघातो यस्य तदव्याघाति । नान्येनाहारकस्य नाप्याहारवेणान्यस्य व्याघातः क्रियत इत्यर्थः । चशब्दस्तन्निवृत्तिप्रयोजनविशेषसमुच्चयार्थः । स च स्वस्यद्धिविशेषसद्भावज्ञानं सूक्ष्म
विशेषार्थ-तैजस शरीर के मूलतः दो भेद हैं एक तो वह है जो सभी संसारी के नियम से सदा रहता है, एक क्षण भी संसारी जीव इसके बिना नहीं रहता। यह तैजस शरीर औदारिक आदि शरीर के दीप्ति-रौनक का निमित्त है तथा अनिःसरणात्मक होता है । दूसरा तैजस शरीर किसी उग्र तपस्वी साधु के संभव है यह भी दो प्रकार का है, शुभ तैजस और अशुभ तैजस । किसी महा तपस्वी जैन साधु के कदाचित् दुर्भिक्ष या मारी आदि से पीड़ित जन समूह को देखकर महा करुणा से उक्त कष्ट दूर करने के लिये धवल शुभ तैजस शरीर निकलता है, वह सर्व विपदा दूर कर पुनः उसी मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो विलीन हो जाता है। अशुभ तैजस शरीर किसी उग्र तपस्वी मुनि के कारण वश कुपित होने पर निकलता है । टीकाकार भास्कर नंदी ने तप के निमित्त से होनेवाले तपस्वी जनों के तैजस शरीर को भी दो प्रकार का बतलाया है निःसरणात्मक और अनिःसरणात्मक । अस्तु ।
अब आहारक शरीर का स्वरूप और स्वामित्व का प्ररूपण करते हैं
सत्रार्थ-आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध और अव्याघाती होता है यह प्रमत्त संयत नामा छठे गुणस्थानवर्ती मुनि के ही होता है ।
आहारक काय योग नाम की शुभ क्रिया का कारण यह आहारक शरीर है अतः इसे शुभ कहते हैं, जैसे कि अन्न को प्राण कहते हैं, वहां अन्न प्राण का कारण है अतः उसे भी प्राण कहा वैसे ही आहारक शरीर शुभ क्रिया का कारण है अतः शुभ कहलाता है । विशुद्ध-पुण्य कर्म का कार्य होने से विशुद्ध संज्ञावाला है। जैसे कपास धागे का कारण है अथवा धागे रूप कार्य का कारण कपास है वैसे विशुद्ध कर्म का कार्य आहारक शरीर है इसलिये विशुद्ध कहलाता है । प्रतिबंध-रुकावट को व्याघात कहते हैं,