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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती घातो ययोस्ते अप्रतिघाते अधिकृते तैजसकार्मणे प्रोच्यते । तथाहि-तैजसकार्मणयोर्वज्रपटलादिषु नास्ति व्याघात: सूक्ष्मावगाहपरिणामात् पारदादिवदिति । तैजसकार्मणशरीरसम्बन्धात्पूर्वममूर्तस्यात्मनः पुनः कथं ताभ्यां सम्बन्धो मुक्तात्मवद्भवेदित्याशङ्कां निराकुर्वन्नाह
प्रनादिसम्बन्धे च ॥ ४१ ॥ आदिः प्रथमः सम्बन्धः संयोगलक्षणो ययोस्ते आदिसम्बन्धे । नादिसम्बन्धे अनादिसम्बन्धे । अधिकृते तैजसकामणे । चशब्दोऽत्र पक्षान्तरसूचनार्थः । कार्यकारणसन्तत्यपेक्षयाऽनादिसम्बन्धे, विशेषापेक्षया सादिसम्बन्धे च ते जीवस्य बीजवृक्षवदिति तात्पर्यार्थः । एते तैजसकार्मणे कि कस्यचिदेव संसारिणो भवत आहोस्विदविशेषेणेत्याह- . जिनका कहीं पर भी व्याघात नहीं होता वे अधिकार में आये हुए तैजस और कार्मण शरीर हैं। इसी को बतलाते हैं-तैजस और कार्मण शरीर का वज्रपटल आदिक से भी व्याघात नहीं होता, क्योंकि ये दोनों ही सूक्ष्म अवगाह वाले हैं [ सूक्ष्म परिणमनवाले हैं ] जैसे पारा आदि द्रव्य ।
__ शंका-तैजस और कार्मण शरीर के संबंध होने के पूर्व में आत्मा अमूर्त रहता है अत: अमूर्त आत्मा का उक्त दो शरीरों के साथ पुनः संबंध किस प्रकार हो सकता है ? नहीं हो सकता, जैसे कि मुक्तात्मा अमूर्त होने से उसके साथ ये शरीर संबद्ध नहीं होते हैं ?
समाधान-अब इसी शंका का निरसन करते हुए सूत्र कहते हैं
सत्रार्थ-तैजस और कार्मण इन दोनों शरीरों का आत्मा के साथ अनादि कालीन संबंध है । आदि का अर्थ प्रथम है और संबंध का अर्थ संयोग संबंध है, जिनका आदि संबंध नहीं है अर्थात् अनादि संबंध है उन अनादि संबंध वाले तैजस कार्मण शरीरों का अधिकार होने से ग्रहण होता है । च शब्द पक्षान्तर की सूचना करता है कि कार्य कारण के प्रवाह की अपेक्षा तो ये दोनों शरीर जीव के साथ अनादि से संबद्ध हैं और अमुक अमुक समय पर बंधने की अपेक्षा सादि संबद्ध हैं जैसे बीज और वृक्ष का प्रवाह रूप तो अनादि संबंध है और अमुक वृक्ष उस बीज से पैदा हआ इत्यादि की अपेक्षा बीज वृक्ष सादि हैं ।
शंका-ये तैजस कार्मण शरीर किसी किसी संसारी जीव के होते हैं अथवा सामान्य से सबके होते हैं ?
समाधान-अब इसीको कहते हैं- .