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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
पिण्डात्मेति । शुद्ध उपचारोऽपि व्यवहारो यथा - देहादिकमहं भवामि, देहादौ भवाम्यहं देहादिकं मम भवतीति । तथा चेतनाचेतनस्थूलसूक्ष्ममूर्तामूर्त द्रव्यगुणवृत्तिविषयो निश्चयः । प्रायोऽक्षार्थविषयः
हार का कथन करते हैं, भूत- वास्तविक आश्रय की विवक्षा रखनेवाला निश्चय नय है। जैसे किसी ने पूछा आपका आधार कौन है ? तो अपना आत्मा ही आधार है । वास्तविक और अवास्तविक आश्रयों की विवक्षा रखने वाला व्यवहार नय है । जैसे चेतन और अचेतन के समुदाय पिण्ड आत्मा आधार है इत्यादि कहना व्यवहार नय है । अथवा शुद्ध उपचार भी व्यवहार नय कहलाता है, जैसे मैं देहादिक होता हूं, देहादिक मैं मैं होता हूं, मेरे देहादिक होते हैं । तथा चेतन अचेतन, स्थूल सूक्ष्म, मूर्त और अमूर्त रूप जो द्रव्य तथा गुण हैं उनको विषय करने वाला निश्चय नय है । और प्राय: करके इन्द्रियों के विषय में प्रवृत्ति और निवृत्ति करने वाला व्यवहार नय है । इसतरह निश्चय नय और व्यवहार नयों का स्वरूप जानना चाहिये । अथवा यथार्थ ग्राही भूतनय है यह सत्य रूप होने से नामान्तर से निश्चय नय रूप कहा जाता है, इस भूतार्थ नय से विपरीत लक्षण वाला अभूतार्थ नय है । अथवा सुनय और दुर्नय स्वरूप अति संक्षेप से दो ही नय जानने चाहिये । इन नयों के वर्णन में एक संग्रह कारिका प्रस्तुत करते हैं
पृथक्त्वं चोपचारं च शुद्धं द्रव्यं च पर्ययम् । यथास्वं यो नयो वेत्ति स भूतार्थोऽन्यथेतरे ॥ १ ॥
अर्थ – पृथक्त्व नय [ अपृथक्त्व नय ] उपचार नय, शुद्ध नय, द्रव्यार्थिक नय पर्यायार्थिक नय, इसप्रकार नयों के भेद जानना चाहिये, तथा जो नय यथार्थ ग्राही है वह भूतार्थ नय कहलाता है । जो अयथार्थ ग्राही हैं वे अभूतार्थनय कहलाते हैं । अथवा इस संग्रह कारिका में “अन्यथेतरे” पद आये हैं उससे इस तरह भी अर्थ होता है पृथक्त्व, उपचार, शुद्ध, द्रव्य और पर्याय इन विषयों को जैसा का तैसा जो नय ग्रहण करता है अर्थात् जो पृथक्त्व रूप है उसे पृथक्त्व रूप, जो उपचार रूप है उसे उपचार रूप इत्यादि रूप से जानता है वह नय भूतार्थ- वास्तविकरीत्या ग्राहक होने से भूतार्थ नय कहते हैं और जो नय पृथक्त्व आदि को उसी रूप न ग्रहण कर अन्यथा - विपरीत अभूतार्थं रीत्या ग्रहण करते हैं वे सर्व ही नय अभूतार्थं नय कहलाते हैं ।। १ ।। ये कहे गये नैगमादि नय विषय के अनंत भेद होने से प्रत्येक विषय की अपेक्षा भेद को प्राप्त