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सुखबोधायां तत्त्वार्थं वृत्तौ
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मिदानीं क्षायिकस्य नवभेदाः क इत्याह
ज्ञानदर्शनवानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ॥ ४॥
निःशेषज्ञानदर्शनावररणक्षयात्केवलज्ञानं केवलदर्शनं च क्षायिकमाविर्भवति । दानान्तरायक्षयासर्वप्राणिनामभयप्रदशक्तिः केवलिनो दानं क्षायिकं प्रभवति । निःशेषलाभान्तरायस्य प्रलयात्परित्यक्तकवलाहारक्रियाणां केवलिनां यतो देहबलाधानहेतवोऽन्यमनुजा साधारणाः परमशुभाः सूक्ष्मा अनन्ताः पुद्गलाः प्रतिसमयं सम्बन्धमुपयान्ति स क्षायिको लाभ: । भोगान्तरायस्यात्यन्तविलयादतिशयवाननन्तो भोगः क्षायिको जायते । यत्कृताः कुसुमवृष्टयादिविशेषा उपतिष्ठन्ते । निरवशेषोपभोगान्तरायस्य प्रक्षयादुपभोगः क्षायिकः स्यात् । यत्कृताः सिंहासनचामरच्छत्रत्रयादय उपढौकन्ते । वीर्यान्तरायस्यात्यन्तविलयादनन्तवीर्यं क्षायिकमाविर्भवति । चशब्देन सम्यक्त्वचारित्रयोः परिग्रहः ।
हास्यादि नौ नोकषाय इनके उपशम से औपशमिक चारित्र ग्यारहवें गुणस्थान में होता है । अथवा उपशम का प्रारंभ उपशम श्रेणि में आठवें गुणस्थान से होता है अतः आठवें गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक होता है ।
अब इस समय क्षायिक सम्यक्त्व के नौ भेद कौनसे हैं ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं
सूत्रार्थ - क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग तथा च शब्द से क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र ऐसे नौ भेद क्षायिक भाव के हैं । संपूर्ण ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के क्षय से क्षायिक केवल ज्ञान और क्षायिक केवल दर्शन प्रगट होता है । दानान्तराय कर्म के नाश से केवली भगवान के सर्व प्राणियों को अभय दान शक्ति रूप क्षायिक दान उत्पन्न होता है । निःशेष लाभान्तराय कर्म के प्रलय से क्षायिक लाभ होता है । जिससे कि कवला - हार - भोजन के परित्यागी सयोग केवली जिनेन्द्र के अन्य मनुष्यों में नहीं पाये जाने वाले ऐसे परम शुभ, सूक्ष्म देह में शक्ति के कारण भूत अनन्त पुद्गल प्रति समय सम्बन्ध को प्राप्त होते रहते हैं । भोगान्तराय कर्म के अत्यन्त विलय से अतिशयवान अनन्त क्षायिक भोग होता है जिसके द्वारा सयोगी भगवान के कुसुमवृष्टि आदि विशेष होते हैं । निरवशेष उपभोगान्तराय कर्म के क्षय से क्षायिक उपभोग भाव प्रादुर्भूत होता है, इस क्षायिक उपभोग के फल स्वरूप देवाधिदेव के सिंहासन चामर छत्रत्रय आदि विशेषतायें उत्पन्न होती हैं । वीर्यान्तराय कर्म के विनाश से क्षायिक अनन्तवीर्य