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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ
मतिश्र तावधिमनःपर्ययज्ञानानि सन्ति । पञ्च पुन कस्मिन् योगपद्येन सम्भवन्तीत्यर्थः । यथोक्तमतिश्रु तावधयः किं सम्यग्व्यपदेशमेव लभन्ते उतान्यथापीत्यत आह
मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३१ ॥ मत्यादय उक्तलक्षणाः । विपर्ययो मिथ्येत्यर्थः । कुतः ? सम्यगधिकारात् । चशब्दोऽत्र समुच्चयार्थः । तत इमे मतिश्रु तावधयो विपर्ययश्च सम्यक्चेति समुदायार्थः कुतः पुनरेषां विपर्ययत्वम् ? मिथ्यादर्शनेन सहकार्थसमवायात् सरजस्ककटुकालाबुगतदुग्धवत् । यथा कटुतुम्बके स्थितं क्षीरं रजसा सहचरितं मधुरमपि कटुकं जायते तथा मिथ्यादृष्टौ जीवे मिथ्यादर्शनेन सहचरितं ज्ञानं संशयविपर्ययानध्यवसायात्मकत्वेन मिथ्या भवति। सम्यक्त्वसहचरितं ज्ञानं सम्यग्भवति अपनीतरजस्कालाबु
मति, श्रत, अवधि और मनःपर्यय ऐसे चार ज्ञान होते हैं । एक साथ एक जीव में पांच ज्ञान संभव नहीं हैं यह तात्पर्य है।
ये कहे हुए मति, श्रुत और अवधिज्ञान सम्यग्संज्ञावाले ही होते हैं । अथवा अन्यथा = मिथ्या संज्ञावाले भी होते हैं ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
सत्रार्थ-मति श्रत और अवधि ये तीन ज्ञान विपरीत भी हो जाते हैं मति आदि पूर्वोक्त लक्षण वाले ज्ञान हैं विपर्यय का अर्थ मिथ्या है, सम्यग्-समीचीन का अधिकार चल रहा है अतः उससे विपरीत जो है वह मिथ्या है ऐसा अर्थ होता है, सूत्र में च शब्द समुच्चय के लिये आया है, उससे ये मति, श्रुत और अवधिज्ञान विपरीत और समीचीन भी होते हैं ऐसा समुदायार्थ है।
शंका-इन ज्ञानों में विपरीतपना किस कारण से आता है ?
समाधान-ये ज्ञान मिथ्यादर्शन के साथ एकार्थ समवाय स्वरूप होगये हैं अर्थात् आत्मा में मिथ्यात्व कर्म का उदय है उस उदय के साथ उसो जीव के मति आदि ज्ञान एकमेक हो रहे हैं अतः उनमें मिथ्यात्व के संपर्क से मिथ्यापना आ जाता है, जैसे सार युक्त कड़वी तुम्बड़ी में रखा हुआ दूध, अर्थात् जिसप्रकार कड़वी तुम्बी में स्थित दुग्ध उस तुम्बी के अन्दर के सार के संबंध से स्वयं मीठा होते हुए भी कड़वा बन जाता है, ठीक इसीप्रकार मिथ्यादृष्टि जीव में मिथ्यात्व के साथ रहनेवाला ज्ञान संशय,