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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती प्रादुर्भाव्यन्ते । सर्वे च तेऽष्टाशीत्यधिकशतद्वयप्रमाणा भवन्ति । चक्षुर्मनोवजितचतुरिन्द्रियैर्व्यञ्जनरूपेषु बह्वादिषु व्यञ्जनावग्रहभेदाश्च वक्ष्यमाणरूपा अष्टाचत्वारिंशन्मिता भवन्ति । सर्वे षट्त्रिंशत्त्रिशतप्रमाणाश्च मतिज्ञानभेदा मन्तव्याः । अवग्रहादीनां ग्राह्यत्वेन पूर्व ये बह्वादयो निर्दिष्टास्ते कस्य विशेषणरूपा इत्याह
अर्थस्य ॥ १७॥ इयति पर्यायांस्तैर्वाऽर्यत इत्यर्थो द्रव्यमेतस्यैव चक्षुरादिविषयत्वेनाभिमतस्य बह्वादिविशेषणविशिष्टस्यावग्रहादयो भवन्ति तदव्यतिरेकेणैव गुणानां ग्रहणसद्भावात् । अत एव गुणा एव चक्षुरादि
परिणाम का मिश्रण से क्षयोपशम होता है उस क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ अवग्रह ज्ञान कभी तो बहु पदार्थ को जानता है कभी अल्प को जानता है, तो कभी बहुविध को कभी एकविध को इसप्रकार हीन अधिकपना होना अध्रुव अवग्रह ज्ञान है । धारणा ज्ञान तो जो जाना हुआ पदार्थ है उसको विस्मृत नहीं होना रूप है अर्थात् स्मृति का कारण है इसतरह ध्रुव अवग्रह और धारणा इन दो में महान् भेद है। प्रतिपक्ष भूत छह इतर के साथ जो रहते हैं वे बहु आदिक सेतर हैं। उन सेतर बहु आदि पदार्थों का पांच इन्द्रियाँ और मन द्वारा प्रत्येक के ग्राहक होने से अर्थावग्रह आदि उत्पन्न होते हैं अर्थात् बहु आदि बारह को छह इन्द्रिय अनिन्द्रिय के साथ गुणा किया
और पुनः अवग्रह आदि चार के साथ गुणा किया तब वे सब दो सौ अठासी भेद होते हैं ये अर्थावग्रह की अपेक्षा भेद हुए। व्यञ्जनरूप बहु आदिक पदार्थों को चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार से गुणा करने पर वक्ष्यमाण व्यञ्जन अवग्रहों के अड़तालीस भेद होते हैं, इन सब भेदों को मिलाने पर तीन सौ छत्तीस प्रमाण मतिज्ञान के भेद जानना चाहिये।
अवग्रह आदि ज्ञानों के द्वारा ग्राह्य जो बहु आदि कहे गये हैं वे किसके विशेषण रूप हैं ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं
सूत्रार्थ-वे बहु आदिक भेद पदार्थ के होते हैं । "इयत्ति पर्यायान् तैः अर्यते इति अर्थः" जो पर्यायों को प्राप्त होता है अथवा जिसके द्वारा पर्याय प्राप्त की जाती है वह अर्थ कहलाता है अर्थात् द्रव्य को अर्थ कहते हैं, जो चक्षु आदि इन्द्रियों का विषय है और जिसके बहु बहुविध आदि विशेषण हैं उस अर्थ या द्रव्य के अवग्रह आदि