Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
जाते हैं वे भी उसे जला कर अकेले ही घर पर चले आते हैं उनके साथ कोई जीव नामक पदार्थ नहीं आता है तथा उस जीव नामक पदार्थ को शरीर छोड़ कर अलग जाता हुआ कोई नहीं देखता है। श्मशान में तो केवल जली हुई उस शरीर की हड्डियाँ रह जाती हैं, उनके सिवाय कोई दूसरा विकार भी वहाँ नहीं देखा जाता जिसको जीव का विकार कहा जाय । अतः आत्मा शरीर स्वरूप ही है शरीर से अतिरिक्त नहीं है यही ज्ञान यथार्थ और सब प्रमाणों में श्रेष्ठ प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है जो लोग शरीर को दूसरा और आत्मा को दूसरा बताते हैं वे वस्तु तत्त्व को नहीं जानते हैं । जो वस्तु जगत् में होती है वह किसी वस्तु से बड़ी और किसी से छोटी अवश्य होती है तथा उसकी अवयव रचना भी किसी प्रकार की होती ही है एवं वह काली नीली पीली या सफेद आदि ही होती है तथा उसमें सुगन्ध दुर्गन्ध
और मृदु या कठिन स्पर्श तथा मधुरादि रसों में कोई एक रस अवश्य रहता है परन्तु इनसे रहित कोई भी वस्तु नहीं होती । अतः आत्मा शरीर से भिन्न यदि होता तो वह अवश्य शरीर से बड़ा या छोटा होता तथा उसकी अवयव रचना भी किसी प्रकार की अवश्य होती एवं उसमें कृष्णादि वर्गों में से कोई वर्ण तथा मधुरादि रसों में से कोई रस और गन्ध तथा स्पर्श भी अवश्य होते परन्तु ये सब आत्मा में पाये नहीं जाते हैं अतः शरीर से भिन्न आत्मा के सद्भाव में कोई प्रमाण नहीं है । जो वस्तु जिससे भिन्न होती है वह उससे अलग कर के दिखायी भी जा सकती है जैसे तलवार म्यान से भिन्न है इसलिए वह म्यान से बाहर निकाल कर दिखायी जाती है तथा मुञ्ज से सलाई, हथेली से आँवला, मांस से हड्डी, तिल से तेल, ईख से रस, अरणि से अग्नि बाहर निकाल कर दिखाये जाते हैं क्योंकि भिन्न-भिन्न वस्तुओं को अलग अलग करके दिखलाना शक्य है परन्तु जो वस्तु जिससे भिन्न नहीं किन्तु तत्स्वरूप ही है उससे अलग करके उसको दिखलाना शक्य नहीं है, यही कारण है कि शरीर से जुदा कर के आत्मा को कोई नहीं दिखा सकता क्योंकि वह शरीर स्वरूप ही है उससे भिन्न नहीं है । यदि वह शरीर से भिन्न होता तो म्यान से तलवार, मुंज से सलाई, हथेली से आंवला, दही से घृत, ईख से रस, तिल से तैल और अरणि से आग की तरह शरीर से बाहर निकाल कर अवश्य दिखाया जा सकता था परन्तु वह शरीर से जुदा . दिखाने योग्य नहीं है अतः वह शरीर से भिन्न नहीं है यह सिद्धान्त ही युक्ति युक्त समझना चाहिये ।
इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा को न मान कर शरीर के साथ ही आत्मा का नाश स्वीकार करने वाले नास्तिकगण शुभ क्रिया अशुभ क्रिया, पुण्य, पाप, स्वर्ग, नरक, मोक्ष एवं पुण्य-पाप के फल, सुख दुःख को नहीं मानते हैं । वे कहते हैं कि जब तक यह शरीर है तभी तक यह जीव भी है इसलिये खूब मौज मजा करना चाहिये तथा नरक आदि से डरना मूर्खता है । जिस किसी प्रकार भी विषय भोग को प्राप्त करना ही बुद्धिमान् का कर्तव्य है यही नास्तिकों का सिद्धान्त है ।
वस्तुतः यह सिद्धान्त ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्येक प्राणी अपने अपने ज्ञान का अनुभव करते हैं । पशु पक्षी आदि भी पहले समझ लेते हैं कि यह वस्तु ऐसी है, उसके पश्चात् वे प्रवृत्ति करते हैं अतः सभी चेतन प्राणी अपने अपने ज्ञान का अनुभव करते हैं इसमें किसी का भी मतभेद नहीं है। इस प्रकार
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