Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 176
________________ अध्ययन ६ विवेचन - गोशालक का पूर्वोक्त कथन सुनकर आर्द्रकमुनि कहते हैं कि- हे गोशालक ! तुमने जो महावीर स्वामी के लिये लाभार्थी वैश्य का दृष्टान्त दिया है वह सम्पूर्ण तुल्यता को लेकर दिया है अथवा देश (एक अंश) तुल्यता को लेकर दिया है ? यदि देश तुल्यता को लेकर दिया है तब तो इससे मेरी कोई क्षति नहीं है क्योंकि भगवान् भी जहां उपकार देखते हैं वहां उपदेश देते हैं और जहां उपकार नहीं देखते हैं वहां उपदेश नहीं देते हैं इसलिये लाभार्थी वैश्य का दृष्टान्त उनमें देश से ठीक सङ्गत होता है परन्तु यदि सम्पूर्ण तुल्यता को लेकर तुमने वैश्य का दृष्टान्त दिया है तो वह भगवान् में कदापि सङ्गत नहीं होता है क्योंकि भगवान् सर्वज्ञ होने के कारण सावद्य अनुष्ठानों से सर्वथा रहित होकर नवीन कर्म नहीं बांधते हैं तथा भव को प्राप्त कराने वाले पुरातन कर्म जो बंधे हुए हैं उनका वे क्षपण करते हैं । कुबुद्धि को छोड़ कर भगवान् सबकी रक्षा करने वाले हैं । जो पुरुष कुबुद्धि का त्यागी है: वह सभी की रक्षा करने वाला है। भगवान् ने स्वयं कहा है कि कुमति को छोड़ने वाला पुरुष ही मोक्ष को प्राप्त करता है अतः भगवान् मोक्ष व्रत का अनुष्ठान करने वाले और मोक्ष के लाभार्थी हैं यह मेरा मत हैं ।। २० ॥ Jain Education International समारभंते वणिया भूयगामं, परिग्गहं चेव ममायमाणा । ते णाइसंजोगमविप्पहाय, आयस्स हेउं पगरंति संगं ॥ २१ ॥ कंठिन शब्दार्थ - भूयगामं - भूतग्राम-प्राणियों का समूह समारभंते ममायमाणा - ममत्व रखते हुए आयस्स - आय (लाभ) के । भावार्थ - बनिये तो प्राणियों का आरम्भ करते हैं। तथा वे परिग्रह पर भी ममता रखते हैं एवं वे ज्ञाति के सम्बन्ध को न छोड़ कर लाभ के निमित्त दूसरों से सम्पर्क करते हैं ॥ २१ ॥ विवेचन - आर्द्रकमुनि कहते हैं कि हे गोशालक ! मैं बनियों का आचरण बतलाता हूँ उसे सुनो। बनिये सावध क्रिया के अनुष्ठान द्वारा प्राणिसमूह का उपमर्दन ( हिंसा) करते हैं। वे माल को इधर-उधर गाड़ी, ऊँट, बैल तथा दूसरे साधनों के द्वारा भेजते हैं जिससे अनेक प्राणियों का विनाश होता है तथा वे द्विपद चतुष्पद और धन धान्य आदि सम्पत्ति को रख कर उन पर अपना ममत्व रखते हैं एवं वे अपने ज्ञाति वर्ग से सम्बन्ध न छोड़ते हुए लाभ के निमित्त दूसरों से संसर्ग करते हैं परन्तु भगवान् वीर प्रभु ऐसे नहीं है। वे छह काय के जीवों की रक्षा करने वाले, परिग्रह रहित, स्वजनों के त्यागी और अप्रतिबद्ध विहारी हैं। वे धर्म की वृद्धि के लिये उपदेश देते हैं अतः भगवान् के साथ बनिये के 'दृष्टान्त का सर्व सादृश्य मानना ठीक नहीं है ॥ २१ ॥ वित्तसिणो मेहुणसंपगाढा, ते भोयणट्ठा वणिया वयंति । वयं तु कामेसु अज्झोववण्णा, अणारिया पेमरसेसु गिद्धा ॥ २२ ॥ कठिन शब्दार्थ - वित्तेसिणो धन के अन्वेषी, मेहुणसंपगाढा मैथुन में आसक्त, पेमरसेसुप्रेम रस में । १६७ For Personal & Private Use Only - आरंभ करते हैं, - www.jainelibrary.org

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