Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 211
________________ २०२ . श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ वि पच्चक्खाइस्सामो, ते णं अभोच्चा अपिच्चा असिणाइत्ता आसंदीपेढियाओ पच्चारुहित्ता, ते तहा कालगया किं वत्तव्वं सिया - सम्मं कालगयत्ति ?, वत्तव्वं सिया ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुच्चंति, ते महाकाया ते चिरट्ठिइया, ते बहुतरगा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ, ते अप्पतरागा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक्खायं भवइ, इति से महयाओ, जण्णं तुब्भे वयह तं चेव जाव अयं वि भेदे से णो णेयाउए भवइ । भावार्थ - भगवान् गौतम स्वामी दूसरी रीति से उदक के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि - हे उदक ! यह संसार कभी भी त्रस प्राणी से खाली नहीं होता है क्योंकि बहुत प्रकार से संसार में त्रस जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। उनमें से दिग्दर्शन के रूप में कुछ मैं बतलाता हूँ । इस संसार में बहुत से शान्त श्रावक होते हैं जो साधु के निकट आकर कहते हैं कि - हम गृहवास को त्याग कर प्रव्रज्या धारण करने के लिये समर्थ नहीं हैं अतः हम अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा आदि तिथियों में पूर्ण पौषध व्रत का आचरण करते हुए रहेंगे तथा स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल . मैथुन का त्याग करेंगे और परिग्रह का परिमाण करेंगे तथा पौषध व्रत के दिन दो करण और तीन योग से करने, कराने और पकाने पकवाने से भी निवृत्ति करेंगे। इस प्रकार प्रतिज्ञा करके वे श्रावक बिना खाये पीये और बिना स्नान आदि किये यदि मृत्यु का अवसर जानकर संलेखणा संथारा करके मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो उनकी गति उत्तम हुई यही कहना होगा और इस प्रकार काल करने वाले प्राणी देवलोक में उत्पन्न होते हैं इसीलिये उन्होंने देवगति प्राप्त की है यही मानना होगा और वे प्राणी त्रस हैं तथा दिव्य शरीर वाले और चिरकाल तक देवलोक में निवास करने वाले हैं उन प्राणियों का घात प्रत्याख्यानी श्रावक नहीं करता है इसलिये उसका प्रत्याख्यान सविषय है, निर्विषय नहीं है इसलिये श्रावकों के प्रत्याख्यान को त्रस के अभाव के कारण निर्विषय बताना मिथ्या है ।। भगवं च णं उदाहु संतेगइया समणोवासगा भवंति, तेसिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ, णो खलु वयं संचाएमो मुंडा भवित्ता अगाराओ जाव पव्वइत्तए, णो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसट्ठमुहिदुपुण्णमासिणीसु जाव अणुपालेमाणा विहरित्तए, वयं णं अपच्छिममारणंतियं संलेहणाजूसणाजूसिया भत्तपाणं पडियाइक्खिया जाव कालं अणवकंखमाणा विहरिस्सामो, सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खाइस्सामो जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खाइस्सामो तिविहं तिविहेणं, मा खलु ममट्ठाए किंचिवि जाव आसंदीपेढियाओ पच्चोरुहिता एते तहा कालगया, किं वत्तव्वं सिया संमं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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