Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 209
________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ जाव सत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते भवइ, परेणं असंजए आरेणं संजए, इयाणिं असंजए, असंजयस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सत्तेहिं दंडे णो णिक्खित्ते भवइ, से एवमायाणह ?, णियंठा !, से एवमायाणियव्वं । कठिन शब्दार्थ - सवणवत्तियं सुनने के लिये, उवसंकमेज्जा - आ सकते हैं, अवितह अवितथं-मिथ्यात्व, असंदिद्धं-संदेह रहित, सव्वदुक्खप्पहीणमग्गं - समस्त दुःखों के नाश का मार्ग, तमं - उसकी अर्थात् धर्म की, आणाए आज्ञा अनुसार, पव्वावित्तए - प्रव्रजित-दीक्षा देने के लिये, णिक्खित्ते निक्षिप्त-छोड़ दिया । २०० - भावार्थ - भगवान् गौतम स्वामी इस पाठ के द्वारा निर्ग्रथों को यह समझाते हैं कि प्रत्याख्यान का सम्बन्ध प्रत्याख्यान करने वाले तथा प्रत्याख्यान किये जाने वाले प्राणी के पर्य्याय के साथ होता है। उनके द्रव्य रूप जीव के साथ नहीं होता है। जैसे कोई पुरुष साधुओं के द्वारा धर्म को सुन कर वैराग्य युक्त हो साधु के पास दीक्षा धारण करके सम्पूर्ण प्राणियों के घात का त्याग करता है। वह पुरुष जब तक साधुपने की पर्य्याय में रहता है तब तक उसका उस प्रत्याख्यान के साथ सम्बन्ध रहता | अतः वह यदि थोड़ा-सा भी अपनी प्रतिज्ञा में दोष लगाता है तो उसके लिये उसे प्रायश्चित्त लेना पड़ता है परन्तु जब वह गृहस्थ के पर्य्याय में था उस समय उसका इस प्रत्याख्यान के साथ कोई सम्बन्ध नहीं था तथा वह किसी बुरे कर्म के उदय से जब साधुपने को छोड़ कर गृहस्थ हो जाता है उस समय भी इस प्रत्याख्यान के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहता है। अतः साधुपने को धारण करके समस्त प्राणियों के घात का प्रत्याख्यान करने वाले इस पुरुष के जीव में जैसे साधुपना धारण करने के पहले और साधुपना छोड़ देने के पश्चात् कोई भेद नहीं रहता, जीव वही होता है परन्तु उसके पर्य्याय एक नहीं -होते वे भिन्न- भन्न होते हैं। इसलिये साधुपने के पर्य्याय में किये हुए प्रत्याख्यान के साथ जैसे गृहस्थ पर्य्याय का कोई सम्बन्ध नहीं होता है इसी तरह त्रस पर्य्याय को न मारने का किया हुआ प्रत्याख्यान स पय को छोड़कर स्थावर पर्य्याय में आये हुए प्राणी के साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं रखता है अतः त्रस के प्रत्याख्यानी पुरुष के द्वारा स्थावर पर्य्याय के घात से उसके व्रत का भंग नहीं होता है । Jain Education International भगवं च णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छियव्वा आउसंतो णियंठा ! इह खलु परिव्वाइया या परिव्वाइयाओ वा अण्णयरेहिंतो तित्थाययणेहिंतो आगम्म धम्मं सवणवत्तियं उवसंकमेज्जा ?, हंता उवसंकमेज्जा, किं तेसिं तहप्पगारेणं धम्मे आइक्खियचे ?, हंता आइक्खियव्वे, तं चेव उवट्ठावित्तए जाव कप्पंति ?, हंता कप्पंति, किं ते तहप्पगारा कप्पंति संभुंजित्तए ! हंता कप्पंति, तेणं एयारूवेणं - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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