Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 221
________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ इस प्रकार गौतम स्वामी के द्वारा यथावस्थित पदार्थ समझाया हुआ भी उदक पेढालपुत्र, भगवान् गौतम स्वामी को आदर नहीं देता हुआ जिस दिशा से आया था उसी दिशा में जाने के लिए तत्पर हुआ । भगवं च णं उदाहु आउसंतो उदगा ! जे खलु तहाभूयस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा णिसम्म अप्पणो देव सुहुमाए पडिलेहाए अणुत्तरं जोगखेमपयं लंभिए समाणे सो वि ताव तं आढाइ परिजाणेड़ वंदइ णमंसइ सक्कारेइ सम्माणेइ जाव कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासइ ॥ २१२ भावार्थ - उदक का यह अभिप्राय जानकर भगवान् गौतम स्वामी ने कहा कि हे आयुष्मन् उदक ! जो पुरुष, तथाभूत श्रमण या माहन के निकट एक भी योगक्षेम पद को सुनता है वह उसका आदर सत्कार अवश्य करता है। (जो वस्तु प्राप्त नहीं है उसको प्राप्त करने के उपाय को 'योग' कहते हैं और जो प्राप्त है उसकी रक्षा के उपाय को 'क्षेम' कहते हैं) जिसके द्वारा योग और क्षेम प्राप्त होते हैं उस अर्थ को बताने वाले पद को 'योगक्षेम पद' कहते हैं ऐसे योगक्षेमपद को उपदेश देने वाले का उपकार मानना कृतज्ञों का परम कर्तव्य है इसलिए भगवान् गौतम स्वामी उदक को उपदेश देते हुए उक्त "योग क्षेम पद" का महत्त्व बतलाते हैं। भगवान् कहते हैं कि वह योगक्षेम पद, आर्य्य अनुष्ठान के हेतु होने से आर्य्य है, वह धर्मानुष्ठान का कारण है इसलिए धार्मिक है। वह सुगति का कारण है इसलिये सुवचन है। ऐसे योगक्षेम पद को सुनकर तथा समझ कर जो पुरुष अपनी सूक्ष्म बुद्धि से यह विचार करता है कि "इस श्रमण या माहन ने मुझको परम कल्याणप्रद योगक्षेम पद का उपदेश दिया है" वह, साधारण पुरुष होकर भी उस उपदेश दाता को आदर देता है, उसे अपना पूज्य समझता है तथा कल्याण मङ्गल और देवता की तरह उसकी उपासना करता है। यद्यपि वह पूज्यनीय पुरुष कुछ भी नहीं चाहता है तथापि कृतज्ञ पुरुष का यह कर्तव्य है कि उस परमोपकारी का यथाशक्ति आदर करे । तणं से उदर पेढालपुत्ते भगवं गोयमं एवं वयासीएएसिं णं भंते ! पयाणं पुव्विं अण्णाणयाए असवणयाए अबोहिए अणभिगमेणं अदिट्ठाणं असुयाणं अमुयाणं अविण्णायाणं अव्वोगडाणं अणिगूढाणं अविच्छिण्णाणं अणिसिद्वाणं अणिवूढाणं अणुवहारियाणं एयमटुं णो सद्दहियं णो पत्तियं, णो रोइयं, एएसिं णं भंते ! पयाणं एहिं जाणयाए सवणयाए बोहिए जाव उवहारणयाए एयमट्टं सहहामि पत्तियामि रोएमि एवमेव से जहेयं तुब्भे वयह ॥ कठिन शब्दार्थ - अण्णाणयाए ज्ञान नहीं होने से, असवणयाए नहीं सुनने से, अबोहिए - Jain Education International For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org

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