Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
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वा एवं वएह-णत्थि णं से केइ परियाए जसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दंडे णिक्खिते, अयं वि भेदे से णो णेयाउए भवइ ।। ७७॥
कठिन शब्दार्थ-वत्तवएणं-वक्तव्य के अनुसार, सुपच्चक्खायं-सुप्रत्याख्यान, परियाए-पर्याय ।
भावार्थ - उदक पेढालपुत्र के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् गौतम स्वामी कहते हैं कि - हे उदक पेढालपुत्र ! हमारी मान्यता के अनुसार तो यह प्रश्न उठता ही नहीं है क्योंकि उस प्राणी सब के सब एक ही काल में स्थावर हो जाते हैं ऐसी हमारी मान्यता नहीं है तथा ऐसा न कभी हुआ और न है और न होगा लेकिन तुम्हारे सिद्धान्त के अनुसार यदि थोड़ी देर के लिए यह मान लें तो भी श्रावक का व्रत निर्विषय नहीं हो सकता है क्योंकि तुम्हारे सिद्धान्तानुसार सब के सब स्थावर प्राणी भी तो किसी समय त्रस हो जाते हैं उस समय श्रावकों के त्याग का विषय तो अत्यन्त बढ़ जाता है उस समय श्रावक का प्रत्याख्यान सर्व प्राणी विषयक हो जाता है अतः तुम लोग श्रावकों के व्रत को जो निर्विषय कहते हो यह न्यायसंगत नहीं है ।। ७७॥
भगवं च णं उदाहु णियंठा खलु पुच्छियव्वा-आउसंतो ! णियंठा इह खलु संतेगड्या मणुस्सा भवंति, तेसिंच एवं वृत्तपुव्वं भवइ-जे इमे मुंडे भवित्ता अगाराओ
अणगारियं पव्वइए, एएसिं च णं आमरणंताए दंडे णिक्खिते, जे इमे अगारमावसंति 'एएसिं णं आमरणंताए दंडे णो णिक्खत्ते, केई च णं समणा जाव वासाई
चउपंचमाइं छट्ठसमाइं अप्पयरो वा भुज्जयरो वा देसं दूइजित्ता अगारमावसेजा?, हंता आवसेज्जा, तस्स णं तं गारत्थं वहमाणस्स से पच्चक्खाणं भंगे भवइ ?, जो इणढे समढे, एवमेव समणोवासगस्स वि तसेहिं पाणेहिं दंडे णिक्खित्ते, थावरेहि दंडे णो णिक्खित्ते, तस्स णं तं थावरका वहमाणस्स से पच्चक्खाणे णो भंगे भवइ, से एवमायाणह ? णियंठा!, एवमायाणियव्वं ॥
कठिन शब्दार्थ-णियंठा - निर्ग्रन्थ, आमरणंताए - मरण पर्यन्त, देसं - देश में, दूइजित्ता - विचर कर, अगारमावसेजा - गृहस्थ बन जाते हैं, गारत्यं - गृहस्थों को, आयाणह - समझो, आयाणियब्वं - समझना चाहिये । ___ भावार्थ - भगवान् गौतम स्वामी ने उदक पेढाल पुत्र के स्थविरों से पूछा कि - हे स्थविरो ! जगत् में कोई पुरुष ऐसे होते हैं जो साधु भाव को अंगीकार किये हुए पुरुषों को मरणपर्य्यन्त दण्ड न देने का व्रत ग्रहण करते हैं परन्तु गृहस्थों को मारने का त्याग वे नहीं करते हैं । वे पुरुष यदि साधुपन को छोड़कर गृहस्थ बने हुए भूतपूर्व श्रमण को मारते हैं तो उनका प्रत्याख्यान भंग होता है या नहीं ?
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