Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 198
________________ अध्ययन ७ १८९ बहुजणस्स अपरिभूए यावि होत्था ॥ से णं लेवे णामं गाहावई समणोवासए यावि होत्था, अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ, णिग्गंथे पावयणे णिस्संकिए, णिक्वंखिए, णिव्वितिगिच्छे, लद्धडे, गहियटे, पुच्छियटे, विणिच्छियटे, अभिगहियढे, अट्ठिमिंजापेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो ! णिग्गंथे पावयणे अयं अटे, अयं परमटे, सेसे अणटे, उस्सियफलिहे अप्पावयवारे चियत्तंतेउरप्पवेसे चाउद्दसट्टमुहिटु-पुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणे समणे णिग्गंथे तहाविहेणं एसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणे बहूहिं सीलव्वयगुण-विरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं अप्याणं भावेमाणे एवं च णं विहरइ ॥६९॥ कठिन शब्दार्थ - लेवे - लेप अड्डे - आढ्य दित्ते - दीप्त-तेजस्वी वित्ते - वित्त-प्रसिद्ध विच्छिण्णविपुलभवणसय-णासणजाणवाहणाइण्णे - विस्तीर्ण विपुल भवन, शयन, आसन, यान और वाहन से आकीर्ण, बहुधणबहुजायरूवरयए - बहुत धन और बहुत चांदी सोने वाला, आओगपओगसंपउत्ते - आयोग प्रयोग संपयुक्त-धन उपार्जन के उपायों में कुशल विच्छड्डियपउरभत्तपाणे- विच्छर्दित प्रचुर भक्तपान-प्रचुर मात्रा में भोजन पानी वितरण करने वाला, बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए - अनेक दासी, दास, गाय, भैंस और भेडों वाला, सीलव्वयगुणविरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं - शीलव्रत और गुणव्रत, विरमण प्रत्याख्यान और पौषधोपवास के द्वारा। भावार्थ - पहले. जिसका वर्णन किया गया है उस नालंदा ग्राम में एक बड़ा धनवान् लेप नामक गृहस्थ निवास करता था । वह श्रमणों की उपासना करने वाला श्रावक था । वह जीव और अजीव तत्त्व को भली-भांति जानने वाला सम्यग् ज्ञानी था । अतः वह अकेला भी समस्त देवता और असुरों से भी धर्म से विचलित किया जाने योग्य नहीं था। आर्हत् प्रवचन में उसकी जरा भी शंका न थी। उसका यह दृढ़ विश्वास था कि-वही सत्य और शंका रहित है जो तीर्थंकरों द्वारा उपदेश किया गया है तथा अन्य दर्शन के प्रति उसका बिलकुल अनुराग नहीं था। उसकी हड्डी और मज्जाओं में निर्ग्रन्थ प्रवचन का अनुराग भरा हुआ था। यदि उससे कोई धर्म के विषय में प्रश्न करता तो वह यही उत्तर दिया करता था कि-यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य प्रवचन है और यही मनुष्य को कल्याण का मार्ग बताने वाला है शेष सब अनर्थ है । इस प्रकार निर्मल श्रावक व्रत के पालन करने से उसका निर्मल यश जगत् में सर्वत्र फैला हुआ था और अन्य तीर्थी उसके घर पर आकर चाहे कितना ही प्रयत्न करे परन्तु उसका एक मामूली दास भी सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट नहीं किया जा सकता था इस कारण उसके घर का द्वार खुला रहता था अन्यतीर्थियों के भय से बन्द नहीं किया जाता था। जहाँ अन्यजनों का प्रवेश सर्वथा वर्जित है ऐसे राजाओं के अन्तःपुरों में भी उसका प्रवेश बन्द नहीं था क्योंकि श्रावक के सम्पूर्ण गुणों से सम्पन्न होने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226