Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 194
________________ अध्ययन ६ गुलर आदि फलों को खाने वाले तापस उन अनेक जङ्गम जीवों का विनाश करते हैं तथा जो लोग भिक्षा से अपनी जीविका चलाते हैं वे भी भिक्षा के लिये इधर उधर जाते आते समय अनेक कीडी आदि प्राणियों का मर्द्दन करते हैं तथा भिक्षा की कामना से उनका चित्त भी दूषित हो जाता है अतः हम लोग वर्षभर में एक महान् हाथी को मार कर उसके मांस से वर्ष भर अपना निर्वाह करते हैं और शेष जीवों की रक्षा करते हैं। अतः हमारे धर्म के आचरण करने से अनेक प्राणियों की रक्षा और एक प्राणी का विनाश होता है इसलिये यही धर्म सबसे श्रेष्ठ है आप भी इसे स्वीकार करें ।। ५२ ॥ संवच्छरेणावि य एगमेगं, पाणं हणंता अणियत्तदोसा । १८५ जीवों की घात से, लग्गा - संलग्न । सेसाण जीवाण वहेण लग्गा, सिया य थोवं गिहिणोऽवि तम्हा ॥ ५३ ॥ कठिन शब्दार्थ - अणियत्तदोसा- दोष से निवृत्त नहीं है वहेण भावार्थ - वर्ष भर में एक एक प्राणी को मारने वाले पुरुष भी जीवों के घात में प्रवृत्ति न करने वाले गृहस्थ भी दोष वर्जित क्यों न माने जावेंगे ॥ ५३ ॥ दोष रहित नहीं है। क्योंकि शेष 1 विवेचन - मुनि आर्द्रकुमार हस्तितापसों से कहते हैं कि एक वर्ष में एक प्राणी को मारने वाला पुरुष भी हिंसा के दोष से रहित नहीं है । उस पर भी हाथी जैसे पंचेन्द्रिय महाकाय प्राणी को मारने वाले तो किसी भी दृष्टि से दोष रहित नहीं । जो पुरुष साधु हैं वे सूर्य्य की किरणों से प्रकाशित मार्ग में युगमात्र दृष्टि रख कर चलते हैं । वे ईर्ष्यासमिति से युक्त होकर बयालिस दोषों को वर्जित करके आहार ग्रहण करते हैं । वे लाभ और अलाभ में समान वृत्ति रखते हैं अतः उनके द्वारा कीड़ी आदि प्राणियों का घात नहीं होता है तथा आशंसा का दोष भी नहीं लगता हैं। आप लोग अल्प जीवों के घात से पाप होना नहीं मानते हैं परन्तु यह मान्यता ठीक नहीं है क्योंकि . गृहस्थ भी क्षेत्र और काल से दूरवर्ती प्राणियों का घात नहीं करते हैं ऐसी दशा में अन्य प्राणियों के घातक होने से गृहस्थ को भी आप दोष रहित क्यों नहीं मानते ? अतः जैसे गृहस्थ दोष वर्जित नहीं है उसी तरह आप भी दोष रहित नहीं है ।। ५३ ॥ Jain Education International संवच्छरणावि य एगमेगं, पाणं हणंता समणव्वएसु । आयाहिए से पुरिसे अणजे, ण तारिसे केवलिणो भवंति ॥ ५४ ॥ कठिन शब्दार्थ - समणव्वएसु श्रमणों के व्रत में, अणज्जे- अनार्य, केवलिणो - केवली । भावार्थ - जो पुरुष श्रमणों के व्रत में स्थित होकर वर्ष भर में भी एक-एक प्राणी को मारता है वह अनार्य्यं कहा गया है ऐसे पुरुष को केवल ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है ॥ ५४ ॥ विवेचन मुनि आर्द्रकुमार हस्तितापसों से कहते हैं कि- जो पुरुष श्रमणों के व्रत में स्थित हो कर भी प्रति वर्ष एक एक प्राणी का घात करते हैं और दूसरों को इस कार्य्य का उपदेश देते हैं वे अपने और दूसरे का अहित करने वाले अज्ञानी हैं । वर्ष भर में एक प्राणी के घात करने से एक प्राणी का ही घात नहीं होता किन्तु उस प्राणी के मांस आदि में रहने वाले अनेक प्राणियों का तथा उसके मांस को For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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