Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 193
________________ १८४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ बिगड़ता है और बुरा उपदेश देकर दूसरे प्राणी को भी खराब करता है। जैसे सच्चे मार्ग को जानने वाला पुरुष ही घोर जंगल से अपने को पार करता है और उपदेश देकर दूसरों को भी पार करता है परन्तु जो मार्ग का ज्ञाता नहीं है और मार्ग जानने वाले के उपदेश को भी नहीं मानता है वह उस घोर जंगल में भटकता फिरता है। अतः कल्याणार्थी मनुष्य को केवलज्ञानी तीर्थंकरों के बताये हुए मार्ग से ही चलना चाहिये ।। ५०॥ जे गरहियं ठाणमिहावसंति, जे यावि लोए चरणोववेया । उदाहडं तं तु समं मईए, अहाउसो विप्परियासमेव ॥५१॥ कठिन शब्दार्थ - गरहियं - गर्हित,ठाणं - स्थान में,चरणोववेया - चारित्र संपन्न, इह - यहाँ, आवसंति - रहते हैं, उदाहडं - कहा हुआ, मईए - अपनी बुद्धि से। ___भावार्थ - मुनि आर्द्रकुमार कहते हैं कि इस लोक में जो पुरुष निन्दनीय आचरण करते हैं और जो पुरुष उत्तम आचरण का पालन करते हैं उन दोनों के अनुष्ठानों को असर्वज्ञ जीव अपनी इच्छा से समान बतलाते हैं। अथवा हे आयुष्मन् ! वे शुभ अनुष्ठान करने वालों को अशुभ आचरण करने वाले और अशुभ अनुष्ठान करने वालों को शुभ आचरण करने वाले इस प्रकार विपरीत प्ररूपणा करते हैं ॥५१॥ विवेचन - जो पुरुष अशुभ कर्म के उदय से अज्ञानी पुरुषों द्वारा आचरण किये हुए बुरे मार्म का आश्रय लेकर असत् आचरण करते हैं तथा जो सर्वज्ञोक्त मार्ग का आश्रय लेकर उत्तम चारित्र का आचरण करते हैं इन दोनों के आचरण यद्यपि समान नहीं है किन्तु पहले का अशुभ और पिछले का शुभ होने के कारण भिन्न-भिन्न हैं तथापि अज्ञानी जीव इन दोनों को समान ही बतलाते हैं तथा कोई अज्ञानी तो पूर्वोक्त असत्य अनुष्ठान वाले के आचरण को शुभ बतलाते हैं, वस्तुतः यह उनकी अपनी . बुद्धि की कल्पना मात्र है वस्तु स्थिति नहीं है ।। ५१॥ संवच्छरेणावि य एगमेगं, बाणेण मारेउ महागयं तु । सेसाण जीवाण दयट्ठयाए, वासं वयं वित्तिं पकप्पयामो ॥५२॥ कठिन शब्दार्थ - संवच्छरेण - वर्ष भर में,बाणेण - बाण से, महागयं - बड़े हाथी को, दयट्ठयाए - दया के लिए। भावार्थ - हस्तितापस कहते हैं कि - हम लोग शेष जीवों की दया के लिये वर्ष भर में वाण के द्वारा एक बड़े हाथी को मार कर वर्ष भर उसके मांस से अपना निर्वाह करते हैं ॥५२॥ विवेचन - पूर्वोक्त प्रकार से एकदण्डियों को परास्त करके जब आर्द्रकुमारमुनि भगवान् महावीर स्वामी के पास जाने लगे तो हस्तितापसों ने आकर उन्हें घेर लिया और वे कहने लगे कि हे आर्द्रकुमार! बुद्धिमान् मनुष्यों को सदा अल्पत्व और बहुत्व का विचार करना चाहिये । वे जो कन्द मूल फल आदि को खाकर अपना निर्वाह करने वाले तापस हैं वे बहुत से स्थावर प्राणियों को तथा उनके आश्रित अनेक जङ्गम प्राणियों का नाश करते हैं । गुलर आदि फलों में बहुत से जङ्गम प्राणी निवास करते हैं इसलिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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