Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 187
________________ १७८ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ "राजानं तृणतुल्यमेव मनुते, शक्रेऽपि नैवादरो । वित्तोपार्जनरक्षण व्ययकृताः, प्राप्नोति नो वेदनाः ॥ संसारान्तर्वर्त्यपीह लभते शं, मुक्त वन्निर्भयः सन्तोषात् पुरुषो-ऽमृतत्वमचिराद, यायात् सुरेन्द्रार्चितः" अर्थात् - सर्वज्ञोक्त धर्म में स्थित सन्तोषी साधु राजा महाराजा आदि को तृण के तुल्य मानता है तथा वह इन्द्र में भी आदर नहीं रखता है। वह सन्तोषी पुरुष धन के अर्जन रक्षण और व्यय के दुःखों को प्राप्त नहीं करता है। वह संसार में रहता हुआ भी मुक्त पुरुष के समान निर्भय होकर विचरता है तथा सन्तोष के कारण वह इन्द्रादि देवों का भी पूजनीय होकर शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करता है ।। ४२॥ सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णियए माहणाणं । ते पुण्णखंधे सुमहऽज्जणित्ता, भवंति देवा इति वेयवाओ॥ ४३॥ कठिन शब्दार्थ- सिणायगाणं - स्नातकों को, पुण्णखंधे - पुण्य स्कंध, सुमहं - महान् अज्जणित्ता - अर्जन करके,वेयवाओ- वेद का कथन है। भावार्थ - ब्राह्मण लोग आर्द्रकमुनि से कहते हैं कि - जो पुरुष दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को प्रतिदिन . भोजन करता है वह भारी पुण्य पुञ्ज को उपार्जन करके देवता होता है यह वेद का कथन है॥ ४३ ॥ विवेचन - बौद्ध मत वालों को परास्त किये हुए आर्द्रकमुनि को देखकर ब्राह्मणगण उनके पास आये और कहने लगे कि - हे आर्द्रक ! तुमने गोशालक और बौद्ध मत का तिरस्कार किया है यह बहुत अच्छी बात है क्योंकि ये दोनों ही मत वेद बाह्य हैं तथा यह आर्हत् मत भी वेदबाह्य ही है अतः तुम इसे भी छोड़ दो । तुम क्षत्रियों में प्रधान हो इसलिए सब वर्गों में श्रेष्ठ ब्राह्मणों की सेवा करना ही तुम्हारा कर्तव्य है शूद्रों की सेवा करना नहीं । तुम यज्ञ याग आदि का अनुष्ठान करो और ब्राह्मणों की सेवा करो । ब्राह्मण सेवा का माहात्म्य हम तुम से कहते हैं उसे सुनो । वेद में लिखा है कि-छह प्रकार के कर्मों को करने वाले वेदपाठी शौचा- चार परायण सदा स्नान करने वाले ब्रह्मचारी दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को जो मनुष्य प्रतिदिन भोजन कराता है वह महान् पुण्य पुञ्ज को उपार्जन करके स्वर्गलोक में देवता होता है ।। ४३॥ सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णियए कुलालयाणं । से गच्छइ लोलुवसंपगाढे, तिव्वाभितावी णरगाभिसेवी॥४४॥ कठिन शब्दार्थ - कुलालयाणं - कुलों में भोजन के लिए घूमने वाले-ब्राह्मणों को,तिव्वाभितावीतीव्र ताप को सहने वाला,णरगाभिसेवी - नरक सेवी, लोलुवसंपगाढे - भयंकर वेदना से युक्त मांस प्राप्ति के लिये। भावार्थ - क्षत्रिय आदि कुलों में भोजन के लिए घूमने वाले दो हजार स्नातक ब्राह्मणों को जो प्रतिदिन भोजन कराता है वह पुरुष मांस लोभी पक्षियों से पूर्ण नरक में जाता है और वह वहाँ भयङ्कर ताप को भोगता हुआ निवास करता है ॥ ४४ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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