Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
१७६
कठिन शब्दार्थ- वाया- वाणी, बुड़या कही हुई ।
भावार्थ - जो लोग पूर्व गाथा में कहे हुए उस प्रकार के मांस का भक्षण करते हैं वे अज्ञानी जन पाप का सेवन करते हैं। अतः जो पुरुष कुशल हैं वे उक्त प्रकार के मांस को खाने की इच्छा भी नहीं करते हैं तथा मांस भक्षण में दोष न होने का कथन भी मिथ्या है ॥ ३९ ॥
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
विवेचन - आर्द्रकुमार मुनि कहते हैं कि पूर्व गाथा में जिस मांस का वर्णन किया गया है उसे खाने वाले पुरुष अनार्य्य हैं उन्हें पाप और पुण्य का ज्ञान सर्वथा नहीं है । एक तो मांस हिंसा के बिना प्राप्त नहीं होता तथा वह स्वभाव से ही अपवित्र है एवं वह रौद्र ध्यान का हेतु है तथा वह रक्त आदि दूषित पदार्थों से पूर्ण और अनेक कीड़ों का स्थान है। वह दुर्गन्ध से भरा हुआ और शुक्र तथा शोणित से उत्पन्न तथा सज्जनों से निन्दित है। ऐसे मांस को जो खाता है वह पुरुष राक्षस के समान है और नरकगामी है अत: विचार करने पर मालूम होता है कि मांस खाने वाला पुरुष अपने आत्मा को नरक में डालने के कारण आत्मद्रोही है तथा आत्मा का कल्याण करने वाला नहीं है ।
·
विद्वान् पुरुष कहते हैं कि - " जिसके मांस को जो इस भव में खाता है वह भी उसके मांस को पर भव में खायगा " इस भाव को लेकर मांस का 'मांस' यह नाम रखा गया है । 'मा' यानी मुझको 'स' अर्थात् वह प्राणी परभव में खायगा, जिसके मांस को मैंने इस भव में खाया है, यह मांस शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ है। अतः मांस खाने वाला पुरुष मोक्ष मार्ग का आराधक नहीं है। जो पुरुष कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य का विवेक रखते हैं जो ज्ञानी और महात्मा हैं वे मांस खाने की इच्छा भी नहीं करते हैं तथा इसके अनुमोदन को भी पाप समझते हैं । अतः बौद्धों का यह आचरण अच्छा नहीं है ।। ३९ ॥
सव्वेसिं जीवाणं दयट्टयाए, सावज्जदोसं परिवज्जयंता ।
-
Jain Education International
-
तस्संकिणो इसिणो णायपुत्ता, उहिट्टभत्तं परिवज्जयंति ॥ ४० ॥
-
कठिन शब्दार्थ - दट्ट्याए दया करने के लिये, सावज्जदोसं सावध दोष को, परिवज्जयंतावर्जन करने वाले, उभित्तं उद्दिष्ट भक्त-मुनियों के लिये बनाया गया आहार आदि को ।
भावार्थ- सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करने के लिये सावध दोष को वर्जित करने वाले तथा उस सावद्य की आशङ्का करने वाले, महावीर स्वामी के शिष्य ऋषिगण उद्दिष्ट भक्त को वर्जित करते हैं ॥ ४० ।।
विवेचन जो पुरुष मोक्ष की इच्छा करने वाले हैं उनको मांस भक्षण तो करना ही नहीं चाहिये इसके सिवाय उद्दिष्टभक्त भी उन्हें त्याग करना चाहिये। क्योंकि छह काय के जीवों का आरम्भ करके आहार तैयार किया जाता है वह आहार यदि साधु के लिये बनाया गया हो तो साधु को छह काय के जीवों के आरम्भ का अनुमोदक बनना पड़ता है इसलिये साधु ऐसे आहार को भी नहीं लेते हैं। भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य ऋषिगण सर्व सावध कर्मों को वर्जित करने वाले होते हैं अतः जिस आहार में उन्हें स्वल्प भी दोष की आशंका हो जाती है उसे वे ग्रहण नहीं करते हैं ।। ४० ॥
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org