Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 183
________________ १७४ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ विज्ञान बल से हाथ में रखे हुए पदार्थ की तरह समस्त पदार्थों को जान लिया है । धन्यवाद है आपके इस विचित्र विज्ञान को जो पुरुष और पिण्याक खली तथा तुम्बा और बालक में भेद न मानने से पाप न होना और भेद मानने से पाप होना बतलाता है ॥ ३४ ॥ जीवाणुभागं सुविचिंतयंता, आहारिया अण्णविहीय सोहिं । ण वियागरे छण्णपओपजीवी, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं॥ ३५॥ कठिन शब्दार्थ - छण्णपओपजीवी - कपट से आजीविका करने वाले । भावार्थ - जैन शासन को मानने वाले पुरुष जीवों की पीडा को अच्छी तरह सोच कर शुद्ध अन्न को स्वीकार करते हैं तथा कपट से जीविका करने वाले बन कर मायामय वचन नहीं बोलते हैं। इस जैन शासन में संयमी पुरुषों का यही धर्म है ॥ ३५ ॥ विवेचन - आर्द्रकमुनि बौद्ध मत का खण्डन करके अपने मत का महत्त्व प्रकट करते हुए कहते हैं कि हे बौद्धो ! जैनेन्द्र शासन को मानने वाले बुद्धिमान् पुरुष प्राणियों की पीड़ा को विचार कर प्रासुक और शुद्ध भिक्षान्न का ही ग्रहण करते हैं। वे बयालीस दोषों को टाल कर भिक्षा ग्रहण करके जीवों के उपमर्द से सर्वथा पृथक् रहने का प्रयत्न करते हैं। जैसे बौद्ध गण भिक्षापात्र में आये हुए सांस ' को भी बुरा नहीं मानते हैं वैसा आर्हत् साधु नहीं करते तथा जो पुरुष कपट से जीविका करने वाला और कपट से बोलने वाला है वह साधु बनने योग्य नहीं यह जैनों की मान्यता है अतः जैन धर्म ही ... पवित्र और आदरणीय है, बौद्ध धर्म नहीं । बौद्ध गण कहते हैं कि अन्न भी मांस के सदृश है क्योंकि वह भी प्राणी का अंग है। परन्तु यह बौद्धों का कथन ठीक नहीं है क्योंकि प्राणी का अंग होने पर भी लोक में कोई वस्तु मांस और कोई अमांस मानी जाती है जैसे दूध और रक्त दोनों ही गौ के विकार हैं तथापि लोक में ये दोनों अलग-अलग माने जाते हैं और दूध भक्ष्य तथा रक्त अभक्ष्य माना जाता है एवं अपनी पत्नी तथा माता दोनों ही स्त्री जाति की होने पर भी लोक में भार्या गम्य और माता अगम्य मानी . जाती है इसी तरह प्राणी के अंग होने पर भी अन्न दूसरा और मांस दूसरा माना जाता है इसलिए अन्न के तुल्य मांस को भक्ष्य बताना मिथ्या है ॥ ३५ ॥ सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णियए भिक्खुयाणं । असंजए लोहियपाणि से ऊ, णियच्छइ गरिहमिहेव लोए ॥ ३६॥ कठिन शब्दार्थ - लोहियपाणि - रुधिर से लिप्त हाथ वाला,गरिहं - गरे (निंदा) को। भावार्थ - जो पुरुष मांसभक्षक दो हजार स्नातक भिक्षुकों को प्रतिदिन भोजन कराता है वह असंयमी तथा रुधिर से लिप्त हाथ वाला पुरुष इसी लोक में निन्दा को प्राप्त होता है और परलोक में दुर्गति का भागी बनता है ॥ ३६ ॥ विवेचन - आर्द्रकुमारमुनि कहते हैं कि - जो पुरुष बोधिसत्व के तुल्य मांस भक्षक दो हजार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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