Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
अर्थात् जिसके शरीर में विष्ठा लगा रहता है वह मृत व्यक्ति विष्ठा सहित जलाये जाने पर श्रृगाल योनि को प्राप्त करता है । तथा जो ब्राह्मण मांस चमड़ा और नमक बेचता है वह शीघ्र ही पतित हो जाता है एवं दूध बेचने वाला ब्राह्मण तो तीन ही दिन में शूद्र हो जाता है । इत्यादि वाक्यों में जाति का नाश होना ब्राह्मण धर्म में भी कहा है एवं परलोक में तो जाति भ्रंश हो ही जाता है । जैसे कि -
"कायिकैः कर्मणां दोषैः, याति स्थावरतां नरः। • वाचिकैः पक्षिमृगतां, मानसै रन्त्यजातिताम्" ।
अर्थात् जो जीव शरीर से पाप करता है वह स्थावर योनि को प्राप्त करता है और जो वाणी से पाप करता है वह पक्षी तथा मृग आदि होता है एवं जो मानसिक पाप करता है वह चाण्डाल जाति में जन्म लेता है। अतः जाति अनित्य है यह निश्चित है फिर जो मनुष्य इस अनित्य जाति को पाकर मद करता है उससे बढ़कर मूर्ख कौन है ? इसके सिवाय ब्राह्मणगण पशु हिंसा को धर्म का अङ्ग मानते हैं यह भी ब्राह्मणत्व के अनुकूल कार्य नहीं है । अतः हिंसा के समर्थक मांस भोजी ब्राह्मणों को भोजन कराने से नरक की प्राप्ति होती है यह आर्द्रकुमारमुनि का आशय है ।। ४५॥
दुहओवि धम्ममि समुट्ठियामो, अस्सिं सुट्ठिच्चा तह एसकालं। आयारसीले बुइएह णाणी, ण संपरायंमि विसेसमत्थि॥ ४६॥
. कठिन शब्दार्थ - समुट्ठियामो - समुपस्थित होते हैं, संपरायम्मि - सम्पराय-संसार में, आयारसीले - आचारशील।
भावार्थ - एक दण्डी लोग आर्द्रकमुनि से कहते हैं कि - हम और तुम दोनों ही धर्म में प्रवृत्त हैं। हम दोनों भूत वर्तमान और भविष्य तीनों काल में धर्म में स्थित हैं। हमारे दोनों के मत में
आचारशील पुरुष ज्ञानी कहा गया है तथा हमारे और तुम्हारे मत में संसार के स्वरूप में भी कोई भेद नहीं है ॥ ४६॥
विवेचन - आर्द्रकुमार मुनि जब ब्राह्मणों को पूर्वोक्त प्रकार से परास्त करके आगे जाने के लिये तैयार हुए तब उनके पास एकदण्डी लोग आये और वे कहने लगे कि हे आर्द्रकुमार ! सब प्रकार के
आरम्भों को करने वाले मांसाहारी विषय भोग में रत गृहस्थ ब्राह्मणों को परास्त करके तुमने अच्छा किया है। अब तुम हमारा सिद्धान्त सुनो और उसे हृदय में धारण करो । सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों की साम्य अवस्था को प्रकृति कहते हैं। उस प्रकृति से महत् तत्त्व की उत्पत्ति होती है और महत् तत्त्व से अहंकार उत्पन्न होता है उस अहंकार से सोलह गण उत्पन्न होते हैं। उन सोलह गणों में पांच तन्मात्राओं से पांच महाभूत उत्पन्न होते हैं। ये सब मिलकर चौबीस पदार्थ हैं और पचीसवां पुरुष है वह चेतन स्वरूप है। इस प्रकार उक्त २५ तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है यही हमारा सिद्धान्त है । इस हमारे सिद्धान्त के साथ आर्हत् सिद्धान्त का बहुत भेद नहीं है किन्तु अधिकांश में तुल्यता है। आप लोग जीव, पुण्य, पाप, बन्ध और मोक्ष को स्वीकार करते हैं और हम भी इनका अस्तित्व मानते हैं एवं हम लोग जिन अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को यम कह कर स्वीकार करते हैं
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