Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 190
________________ अध्ययन ६ १८१ ATTRITATA आप लोग उन्हें ही पञ्च महाव्रत कहते हैं। इसी तरह इन्द्रिय और मन को नियम में रखना हमारा और आपका दोनों का सिद्धान्त है अतः हमारे दोनों के मतों की बहुत समता है। वस्तुतः हम और आप ये दो ही सच्चे धर्म में स्थित हैं तथा भूत वर्तमान और भविष्य तीनों ही काल में अपनी प्रतिज्ञा को पालने वाले हैं। एवं हम दोनों के यहां आचार प्रधान शील सबसे उत्तम माना गया है जो शील यम नियमादि रूप है । तथा हम दोनों के ही शास्त्रों में श्रुत ज्ञान या केवलज्ञान को मोक्ष का कारण माना है। एवं संसार का स्वरूप जैसा आपके शास्त्र में माना जाता है वैसा ही हमारे शास्त्र में भी माना गया है। हमारा शास्त्र कहता है कि - अत्यन्त असत् वस्तु उत्पन्न नहीं होती है किन्तु कारण में कथञ्चित् स्थित ही उत्पन्न होती है और आप भी यही मानते हैं तथा द्रव्य रूप से संसार को आप नित्य मानते हैं और हम भी उसे नित्य कहते हैं। यद्यपि आप संसार की उत्पत्ति और नाश भी मानते हैं तथापि आपके साथ हमारा अधिक भेद नहीं हैं क्योंकि हम भी संसार का आविर्भाव और तिरोभाव मानते हैं ।। ४६॥ अव्वत्तरूवं पुरिसं महंतं, सणातणं अक्खयमव्वयं च । सव्वेसु भूएस वि सव्वओ से, चंदो व ताराहि समत्तरूवे।। ४७ ॥ कठिन शब्दार्थ- अव्वत्सरुवं - अव्यक्तरूप, सणातणं - सनातन, अक्खयं - अक्षय और, अव्ययं - अव्यय, समत्तखवे - समस्त रूप। भावार्थ - यह पुरुष यानी जीवात्मा अव्यक्त है यानी यह इन्द्रिय और मन का विषय नहीं है तथा यह सर्वलोक व्यापक और सनातन यानी नित्य है। यह क्षय और नाश से रहित है। यह जीवात्मा सब भूतों में सम्पूर्ण रूप से रहता है जैसे चन्द्रमा सम्पूर्ण ताराओं के साथ सम्पूर्ण रूप से सम्बन्ध करता है॥४७॥ विवेचन- एक दण्डी लोग आर्हत् मत से अपने मत की तुल्यता सिद्ध करते हुए कहते हैं कि - शरीर को पुर कहते हैं और उस शरीर में जो निवास करता है उसे पुरुष कहते हैं वह जीवात्मा है उसे जैसे आर्हत लोग स्वीकार करते हैं उसी तरह हम लोग भी स्वीकार करते हैं। वह जीवात्मा इन्द्रिय और मन से जानने योग्य न होने से अव्यक्त है। वह स्वतः कर(हाथ), चरण(पैर), शिर और ग्रीवा(गर्दन) आदि अवयवों से युक्त नहीं है। वह सर्व लोकव्यापी और नित्य है। यद्यपि उसकी नाना योनियों में गति होती है तथापि उसके चैतन्य रूप का कभी भी विनाश नहीं होता है अतः वह नित्य है। उसके प्रदेशों को कोई खण्डित नहीं कर सकता है इसलिये वह अक्षय है। अनन्त काल व्यतीत होने पर भी उसके एक अंश का भी नाश नहीं होता है इसलिये वह अव्यय है। जैसे चन्द्रमा अश्विनी आदि नक्षत्रों के साथ पूर्ण रूप से सम्बन्ध करता है इसी तरह यह आत्मा शरीर रूप से परिणत सब भूतों के साथ पूर्णरूप से सम्बन्ध करता है किन्तु एक अंश से नहीं क्योंकि वह निरंश है। इस प्रकार आत्मा के ये सब विशेषण हमारे दर्शन में ही पूर्णरूप से कहे गये हैं, आहत दर्शन में नहीं, यह हमारे धर्म की आर्हत दर्शन से विशेषता है, अतः हे आर्द्रकुमार ! तुमको हमारे धर्म में ही आना चाहिये, आर्हत धर्म में नहीं। यह एकदण्डियों ने आर्द्रकमुनि से कहा ।। ४७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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