Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूर्यगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
अहावगासेणं इथिए पुरिसस्स य कम्म जाव मेहुणवत्तिए णामं संजोगे समुप्पग्जइ, ते दुहओ सिणेहं संचिण्णंति, तत्थ णं जीवा इत्थित्ताए पुरिसत्ताए जाव विउटुंति, ते जीवा माओउयं पिउसुक्कं एवं जहा मणुस्साणं इत्यपि वेगया जणयंति पुरिसंपि णपुंसगंपि, ते जीव डहरा समाणा माउक्खीरं सप्पिं आहारेंति, आणुपुवेणं वुड्डा वणस्सइकायं तसथावरे य पाणे, ते जीवा आहारेंर्ति पुरविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि यणं तेसिं णाणाविहाणं चउप्पयथलयस्पंदिय-तिरिक्खजोणियाणं एगखुराणं जाव सणप्फयाणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं ॥ ___ कठिन शब्दार्थ - एगखुराणं - एक खुर वाले, गंडीपयाणं- गण्डीपद-सुनार की ऐरण की तरह, सणप्फयाणं - सनखपद-नख युक्त पैर वाले ।।
भावार्थ - पृथिवी के ऊपर विचरने वाले पाँच ही इन्द्रियों से युक्त चौपाये जानवरों का वर्णन इस पाठ में किया है। ये चौपाये जानवर कोई एक खुर वाले होते हैं, जैसे घोड़े और गदहे आदि जानवर तथा कोई दो खुर वाले होते हैं जैसे गाय भैंस आदि। कोई गण्डीपद यानी सुनार की ऐरण (फलक) के . समान पैर वाले होते हैं जैसे हाथी और गेंडा आदि । कोई नखयुक्त पैर वाले होते हैं जैसे वाघ और सिंह आदि। ये जीव अपने अपने बीज और अवकाश (स्थान) के अनुसार ही जन्म धारण करते हैं अन्यथा नहीं। गर्भधारण से लेकर गर्भ से बाहर आने तक का इनका वृत्तान्त मनुष्य के पाठ में उक्त वर्णन के समान ही जानना चाहिये। सब पर्याप्ति से पूर्ण होकर जब ये प्राणी माता के गर्भ से बाहर आते हैं तब माता के दूध को पीकर ये अपना जीवन धारण करते हैं। जब ये बढ़कर बड़े हो जाते हैं तब वनस्पति और त्रस तथा स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं। शेष पूर्व पाठ के समान ही समझना चाहिये। ये प्राणी अपने किये हुए कर्मों का फल भोगने के लिये इन योनियों में जन्म धारण करते हैं, यह तीर्थंकर भगवान् ने कहा है।
- अहावरं पुरक्खायं णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदिय-तिरिक्खजोणियाणं, तंजहा-अहीणं अयगराणं आसालियाणं महोरगाणं, तेसिंच णं अहाबीएणं अहावगासेणं इत्थीए पुरिसस्स जाव एत्थ णं मेहुणे एवं तं चेव, णाणत्तं अंडं वेगइया जणयंति पोयं वेगइया जणयंति, से अंडे उभिज्जमाणे इत्थिं वेगइया जणयंति पुरिसंपि णपुंसगंपि, ते जीवा डहरा समाणा वाउकायमाहारेंति आणुपुव्वेणं वुड्डा वणस्सइकायं तसथावरपाणे, ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं अहीणं जाव महोरगाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जावमक्खायं।
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