Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ४
लोमुक्खणणमायमवि, हिंसाकारं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति, एवं णच्चा सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता ण हंतव्वा जाव ण उद्दवेयव्वा, एस धम्मे धुवे णिइए सासए समिच्च लोयं खेयण्णेहिं पवेइए, एवं से भिक्खू विरए पाणाइवायाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ, से भिक्खू, णो दंतपक्खालणेणं दंते पक्खालेज्जा, णो अंजणं, णो वमणं, णो धूवणित्तं, पि आइत्ते, से भिक्खू अकिरिए अलूसए अकोहे जाव अलोभे उवसंते परिणिव्वुडे, एस खलु भगवया अक्खाए संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे अकिरिए संवुडे, एगंतपंडिए भवइ तिबेमि।।६७॥ इति बीयसुयक्खंधस्स पच्च-क्खाणकिरिया णामं चउत्थमग्झयणं समत्तं ।२-४।
कठिन शब्दार्थ- कुव्वं - करता हुआ, कारवं - करवाता हुआ, संजयविरयप्पडिहयपच्चक्खाय पावकम्मे - संयत, विरत, प्रतिहत प्रत्याख्यात पाप कर्म वाला, दंतपक्खालणेणं - दांतों को धोने से । . भावार्थ - प्रश्नकर्ता आचार्य से प्रश्न करता है कि-मनुष्य स्वयं क्या करके और दूसरे से क्या करा कर तथा किस उपाय से संयत विरत और पापकर्म का प्रतिघात और त्याग करने वाला होता है ? इसका उत्तर देता हुआ आचार्य कहता है कि श्री तीर्थंकर देव ने संयम के अनुष्ठान के कारण पृथिवी काय से लेकर अस काय तक के प्राणियों को बताया है। जैसे प्रत्याख्यान रहित प्राणियों के लिये ये उक्त छह काय के जीव संसारगति के कारण होते हैं इसी तरह प्रत्याख्यान करने वाले प्राणियों के लिए ये मोक्ष के कारणं कहे गये हैं जैसे अपने को कोई प्राणी किसी प्रकार का दुःख देता है तो जैसे अपने को वह बुरा प्रतीत होता है इसी तरह अपने भी जब दूसरे को कष्ट देते हैं तो वह भी दुःख अनुभव करता है यह जान कर किसी भी प्राणी को दुःख न देना चाहिये । यह जानकर जो पुरुष किसी प्राणी को कष्ट नहीं देता है सभी को. दुःख देने का त्याग कर देता है वही पुरुष अहिंसक तथा अपने पापों का प्रतिघात और त्याग करने वाला है। यह सभी प्राणियों की हिंसा को त्याग करना रूप धर्म ही सत्य और स्थिर धर्म है और इसी को सर्वज्ञों ने सर्वोत्तम.धर्म माना है। जो पुरुष इस धर्म का अनुयायी है वही सावध कर्मों का त्यागी, अहिंसक और एकान्त पण्डित है ।। ६७॥
त्ति बेमि - इति ब्रवीमि - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ।
... ॥चौथा अध्ययन समाप्त ।
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