Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ४
१२५ :
कठिन शब्दार्थ - सण्णिदिटुंते - संज्ञी का दृष्टांत, असण्णिदिटुंते - असंज्ञी का दृष्टांत, अपस्सओ- नहीं देखता हो, तक्का - तर्क, सण्णा - संज्ञा, पण्णा- प्रज्ञा, अहोणिसिं- दिन रात, अविविचित्ता- कर्मों को अपने से अलग न करके, अविधूणित्ता - न झड़का कर, असम्मुछित्ता - न छेद कर, अणाणुत्तावित्ता-पश्चात्ताप न करके, संकमंति-संक्रमण करते हैं।
भावार्थ - जो जीव प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान (त्याग) किया हुआ नहीं है वह समस्त प्राणियों का बैरी है वह सदा प्राणियों के घात का पाप करता है क्योंकि उसकी चित्त वृत्ति सब प्राणियों के प्रति सदा हिंसात्मक बनी रहती है। यह जो पहले के सूत्र में उपदेश दिया गया है इसको असम्भव बतलाते हुए प्रश्नकर्ता ने कहा है कि-"जगत् में बहुत से प्राणी ऐसे हैं जो देश और काल से अत्यन्त दूर हैं इस कारण उनका न तो रूप कभी देखने में आता है और न नाम सुनने में आता है अतः उनके साथ पारस्परिक व्यवहार न रहने से किसी भी प्राणी की चित्तवृत्ति उन प्राणियों के प्रति हिंसात्मक कैसे बनी रह सकती है ? अत:अप्रत्याख्यानी प्राणी समस्त प्राणियों का हिंसक किस तरह माना जा सकता है ?" इस शंका का समाधान करने के लिये आचार्य कहता है कि-जो प्राणी जिस प्राणी की हिंसा से निवृत्त नहीं है किन्तु प्रवृत्त है उसकी चित्तवृत्ति उसके प्रति सदा हिंसात्मक ही बनी रहती है इसलिये वह हिंसक ही है अहिंसक नहीं है। जैसे कोई ग्राम का घात करने वाला पुरुष जिस समय ग्राम का घात करने में प्रवृत्त होता है उस समय जो प्राणी उस ग्राम को छोड़कर किसी दूसरे स्थान में चले गये हैं उनका घात उसके द्वारा नहीं होता है तो भी वह घातक पुरुष उन प्राणियों का अघातक या उनके प्रति हिंसात्मक चित्तवृत्ति न रखने वाला नहीं है क्योंकि उसकी इच्छा उन प्राणियों के भी घात की ही है
वह उन्हें भी मारना ही चाहता है परन्त वे उस समय वहाँ उपस्थित नहीं है इसलिये नहीं मारे जाते हैं इसी तरह जो प्राणी देश काल से दूर के प्राणियों के घात का त्यागी नहीं है वह उनका भी हिंसक ही है और उसकी चित्तवृत्ति उनके प्रति भी हिंसात्मक ही है इसलिये पहले जो कहा गया है कि-अप्रत्याख्यानी प्राणी समस्त प्राणियों के हिंसक हैं सो ठीक ही है। इस विषय में दो दृष्टांत शास्त्रकार ने बताये हैं एक संज्ञी का और दूसरा असंज्ञी का। उनका आशय यह है-जिस पुरुष ने एक मात्र पृथिवीकाय से अपना कार्य करना नियत करके शेष प्राणियों के आरम्भ करने का त्याग कर दिया है वह पुरुष देश काल से दूरवर्ती पृथिवीकाय का भी हिंसक ही है अहिंसक नहीं है। वह पुरुष पूछने पर यहीं कहता है कि-मैं पृथिवीकाय का आरम्भ करता हूँ और कराता हूँ और करने वाले का अनुमोदन करता हूँ परन्तु वह यह नहीं कह सकता है कि-मैं श्वेत या नील पृथिवीकाय का आरम्भ करता हूँ शेष का नहीं करता हूँ क्योंकि उसका किसी भी पृथिवी विशेष का त्याग नहीं है इसलिये आवश्यकता न होने से या दूरता आदि के कारण वह जिस पृथिवी का आरम्भ नहीं करता है उसका भी अघातक नहीं कहा जा सकता है एवं उस पृथिवी के प्रति उसकी चित्तवृत्ति हिंसा रहित नहीं कही जा सकती है। इसी तरह प्राणियों के घात का अप्रत्याख्यान नहीं किये हुए प्राणी को देशकाल से दूरवर्ती
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