Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 148
________________ अध्ययन ५ बनता है क्योंकि वह अंश क्या है ? यदि अवयव ही है तब तो फिर वही बात आती है जो . अवयव पक्ष में कही गई है। यदि वह अंश अवयवों से जुदा है तब फिर उस अंश में वह अवयवी सम्पूर्ण रूप से रहता है अथवा अंशतः रहता है यह पूर्व की शंका सामने ही खड़ी है । इस शंका का निवारण करने के लिये यदि फिर वही उत्तर दिया जाय कि वह अवयवी अपने अंश में अंशतः रहता है तो पहला प्रश्न फिर खड़ा हो जाता है अतः इस उत्तर में अनवस्था दोष है । इस प्रकार विचार के साथ देखने से किसी भी दृश्य पदार्थ का कोई नियतस्वरूप सिद्ध नहीं होता है अतः स्वप्न इन्द्रजाल और माया में प्रतीत होने वाले पदार्थों के समान ही जगत् के सभी प्रतीयमान पदार्थ मिथ्या है यह बात सिद्ध होती है । अतएव अनुभवी विद्वानों की उक्ति है कि- "यथा यथाऽर्थाश्चिन्त्यन्ते, विविच्यन्ते तथा तथा । यद्येतत् स्वयमर्थेभ्यो, रोचते तत्र के वयम् ॥" अर्थात् ज्यों ज्यों गम्भीर दृष्टि से पदार्थों का विचार किया जाता है त्यों त्यों वे अपने स्वरूप को बदलते चले जाते हैं अर्थात् वे कभी किसी रूप में और कभी किसी रूप में प्रतीत होते हैं-परन्तु नियत रूप उनका प्रतीत नहीं होता है अतः जब पदार्थों का तत्त्व ही ऐसा है तो उनको नियत रूप देने वाले हम कौन हैं ? आशय यह है कि-दृश्य पदार्थ का प्रतीयमान रूप मिथ्या है अतः जब वस्तु का ही सद्भाव सिद्ध नहीं होता तब लोक और अलोक आदि का सद्भाव किस तरह सिद्ध हो सकता है? यह सर्वशून्यतावादी नास्तिकों का सिद्धान्त है। परन्तु यह सिद्धान्त भ्रममूलक है क्योंकि माया इन्द्रजाल और स्वप्न में प्रतीत होने वाले पदार्थ सत्य पदार्थ की अपेक्षा से मिथ्या माने जाते हैं स्वतः नहीं । यदि समस्त पदार्थ ही मिथ्या है तब फिर माया इन्द्रजाल और स्वप्न की व्यवस्था ही कैसे की जा सकती है ? तथा सर्वशून्यतावादी युक्ति के आधार पर ही सर्व पदार्थों को मिथ्या सिद्ध कर सकता है अन्यथा नहीं। वह युक्ति यदि सच्ची है तब तो उसी युक्ति की तरह जगत् के समस्त दृश्य पदार्थ भी सच्चे क्यों नहीं माने जावे ? और यदि वह युक्ति मिथ्या है तो फिर उस मिथ्या युक्ति से वस्तु तत्त्व की सिद्धि किस प्रकार की जा सकती है ? यह नास्तिक को सोचना चाहिये । - जगत् के दृश्य पदार्थ अपने-अपने अवयवों के द्वारा प्रकाशित होते हैं अथवा अवयवी के द्वारा . प्रकाशित होते हैं इस प्रकार दो पक्षों की कल्पना करके नास्तिक ने जो दोनों पक्षों को दूषित करने की चेष्टा की है वह भी उसका प्रलाप मात्र है क्योंकि अवयव के साथ अवयवी का कथञ्चित् भेद और कथञ्चित् अभेद है तथा वे अपनी सत्ता से स्वतः प्रकाशित हैं एवं उनके द्वारा जगत् की समस्त क्रियायें की जाती हैं, आग प्रत्यक्ष जलाती हुई, जल ठण्डा करता हुआ, वायु स्पर्श उत्पन्न करता हुआ प्रत्यक्ष ही अनुभव किया जाता है एवं जगत् के सभी घटपटादि पदार्थ अपना-अपना कार्य करते हुए अनुभव किये जाते हैं अतः उन्हें मिथ्या मानना सर्वथा भ्रम है। यधपि पदार्थों का अन्तिम अवयव परमाणु है 4 अप्रामाणिकानन्त परिकल्पनया विश्रान्त्यभावो अनवस्था अर्थ- अप्रामाणिक अनन्त पदार्थों की कल्पना करते जाना एवं कहीं नहीं रूकना अनवस्था दोष कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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