Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
लाख योनि वाले हैं वे सभी एक ही प्रकार के हैं क्योंकि उनका सामान्य धर्म तिर्यञ्चपना एक ही है तथा कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तीपक और संमूर्छनज रूप भेदों को छोड़ देने से समस्त मनुष्य भी एक ही प्रकार के हैं एवं भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक भेद से भिन्न भिन्न होते हुए भी देवता केवल देवरूप से ही ग्रहण किये जाते हैं इसलिये वे भी एक हैं इस प्रकार सामान्य और विशेष का आश्रय लेकर जो जगत् को चार प्रकार का कहा गया है उसे ही सत्य मानना चाहिये तथा संसार विचित्र है इसलिये वह एक प्रकार का नहीं है और नारकी आदि समस्त जीव अपनी अपनी जाति का उल्लंघन नहीं करते हैं इसलिये संसार अनेक प्रकार का भी नहीं है। संसार है इसलिये मुक्ति भी है क्योंकि समस्त पदार्थों का प्रतिपक्ष अवश्य होता है ।। २३-२४॥
णस्थि सिद्धी असिद्धी वा, णेवं सण्णं णिवेसए । अस्थि सिद्धि असिद्धी वा,एवं सण्णं णिसए॥ २५॥
भावार्थ - सिद्धि और असिद्धि नहीं है, यह विचार नहीं रखना चाहिये किन्तु सिद्धि और असिद्धि हैं यही विचार करना चाहिये।
णत्थि सिद्धि णियं ठाणं, णेवं सण्णं णिवेसए । अस्थि सिद्धि णियं ठाणं, एवं सण्णं णिवेसए॥ २६॥ कठिन शब्दार्थ -णियं - निज-अपना, ठाणं - स्थान।
भावार्थ - सिद्धि जीव का अपना स्थान नहीं है ऐसा नहीं मानना चाहिये किन्तु सिद्धि जीव का निज स्थान है यही सिद्धान्त मानना चाहिये ।।
विवेचन - समस्त कर्मों का क्षय हो जाना सिद्धि है और इससे विपरीत असिद्धि है। वह असिद्धि संसाररूप है और उसका अस्तित्व पूर्व गाथा में सिद्ध किया है। वह असिद्धि सत्य है इसलिये उससे विपरीत सिद्धि भी सत्य है क्योंकि सभी पदार्थों का प्रतिपक्ष अवश्य होता है। सम्यगदर्शन ज्ञान और चारित्र, मोक्ष के मार्ग कहे गये हैं इसलिये इनके आराधन करने से समस्त कर्मों का क्षय होकर जीव को सिद्धि की प्राप्ति होती है । पीड़ा और उपशम के द्वारा कर्मों का देश से क्षय होना प्रत्यक्ष देखा जाता है इससे सिद्ध होता है कि-समस्त कर्मों का क्षय भी किसी जीव का अवश्य होता है। अतएव विद्वानों ने कहा है कि
"दोषावरणयोहानि, निशेषाऽस्त्यतिशायिनी।
क्वचधथा स्वहेतुभ्यो, बहिरन्तर्मलक्षयः ॥" '
अर्थात् मल के नाश करने वाले कारणों के संयोग से जैसे मनुष्य के बाहर भीतर दोनों ही तरफ के मलों का अत्यन्त क्षय हो जाता है इसी तरह किसी पुरुष के दोष और आवरणों का भी अत्यन्त क्षय होता है वह ऐसा पुरुष समस्त कर्मों के क्षय होने से सिद्धि को प्राप्त करता है और उसी को
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