Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 160
________________ अध्ययन ५ १५१ शब्द है यानी साधु होने पर साधु की अपेक्षा से असाधु होता है और असाधु होने पर उसकी अपेक्षा से साधु होता है इसलिये साधु और असाधु नहीं है यह कई लोग कहते हैं। परन्तु विवेकी पुरुष को ऐसा नहीं मानना चाहिये क्योंकि-जो पुरुष सदा उपयोग रखने वाला राग द्वेष रहित सत्संयमी और शास्त्रोक्त रीति से शद्ध आहार लेने वाला सम्यग्दष्टि है वह साध अवश्य है उसके द्वारा यदि कदाचित अनेषणीय आहार भी भूल से ले लिया जाय तो वह तीनों उक्त रत्नों का अपूर्ण आराधक नहीं है किन्तु पूर्ण आराधक है क्योंकि उसकी उपयोग बुद्धि शुद्ध है तथा पूर्व गाथा में जिन समस्त कर्मों का क्षय स्वरूप मुक्ति की सिद्धि की गई है वह भी साधु को ही प्राप्त होती है इससे भी साधु के अस्तित्व की सिद्धि होती है और साधु का अस्तित्व अवश्य है इसलिये साधु के प्रतिपक्षी असाधु का भी अस्तित्व है यही विवेकी पुरुष को मानना चाहिये । ___ कोई कहते हैं कि-"यह तो भक्ष्य है और यह अभक्ष्य है तथा यह गम्य है और यह अगम्य है एवं यह अप्रासुक तथा अनेषणीय है और यह प्रासुक तथा एषणीय है, इत्यादि विषम भाव रखना राग द्वेष है इसलिये ऐसा विषम भाव रखने वाले पुरुषों में सामायिक (समता) का अभाव है।" परन्तु यह बात ठीक नहीं है क्योंकि-भक्ष्याभक्ष्य आदि का विचार करना मोक्ष का प्रधान अङ्ग है यह राग द्वेष नहीं है। राग से तो भक्ष्याभक्ष्य का विचार नष्ट हो जाता है चाहे स्वादिष्ट वस्तु कैसी ही हो रागी पुरुष की उसमें ग्रहण बुद्धि हो जाती है इसलिये भक्ष्याभक्ष्य का विवेक राग के अभाव का कार्य है राग का नहीं है। वस्तुतः कोई उपकार करे या अपकार करे परन्तु उसके ऊपर समान भाव रखना सामायिक है परन्तु भक्ष्याभक्ष्य का विवेक न रखना सामायिक नहीं है । अतः भक्ष्याभक्ष्य के विवेक को राग द्वेष मानना भूल है ।। २७॥ बौद्ध कहते हैं कि-"सभी पदार्थ अशुचि और आत्मरहित है इसलिये जगत् में कल्याण नाम का कोई पदार्थ नहीं है और कल्याण नामक पदार्थ न होने से कोई पुरुष कल्याणवान् भी नहीं है" तथा आत्माद्वैतवादी के मत में सभी पदार्थ पुरुषस्वरूप हैं इसलिये पुण्य या पाप कोई वस्तु नहीं है, परन्तु विवेकी पुरुष को ऐसा नहीं मानना चाहिये किन्तु कल्याण और पाप दोनों ही है यही मानना चाहिये। बौद्धों ने जो समस्त पदार्थों को अशुचि कहा है वह ठीक नहीं है क्योंकि सभी पदार्थ अशुचि होने पर बौद्धों के उपास्य देव भी अशुचि सिद्ध होंगे परन्तु ऐसा वे नहीं मान सकते इसलिये सब पदार्थ अशुचि नहीं है यही मानना चाहिये। एवं सभी पदार्थ को निरात्मक बताना भी ठीक नहीं है क्योंकि-सभी पदार्थ स्वद्रव्य, स्वकाल, स्वक्षेत्र, और स्वभाव की अपेक्षा से सत् और परद्रव्य परकाल परक्षेत्र और परद्रव्य की अपेक्षा से असत् है यही सर्वानुभवसिद्ध निर्दुष्ट सिद्धान्त है निरात्मवाद नहीं हैं। तथा आत्माद्वैतवाद भी मिथ्या है इसलिये पाप का अभाव भी नहीं है । आत्माद्वैतवाद में जगत् की विचित्रता हो नहीं सकती है यह पहले कई बार कहा जा चुका है अतः एक मात्र पुरुष को ही सब कुछ मान कर पाप आदि को न मानना मिथ्या है । वस्तुतः कथञ्चित् पाप और कथञ्चित् कल्याण दोनों ही है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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