Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 159
________________ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ प्राणी की विराधना भी हो जाय तो भावशुद्धि के कारण कर्मबन्ध नहीं होता है क्योंकि वह साधु सर्वथा दोष रहित है अतः ऐसे पुरुषों को समस्त कर्मों का क्षय होकर सिद्धि की प्राप्ति होती है इसमें कोई सन्देह नहीं है इसलिये सिद्धि की प्राप्ति को असम्भव मानना मिथ्या 1 इस प्रकार समस्त कर्मों के स्थान है। वह स्थान एक योजन के क्षय हो जाने पर जीव जिस स्थान को प्राप्त करता है वह उसका निज एक कोश का छट्ठा भाग है तथा वह चतुर्दश रज्जु स्वरूप इस लोक अग्र भाग में स्थित है। वह स्थान नहीं है ऐसा विवेकी पुरुष को नहीं मानना चाहिये क्योंकि जिनके समस्त कर्म क्षय हो गये हैं ऐसे पुरुषों का भी कोई स्थान होना ही चाहिये। वे मुक्त पुरुष आ तरह सर्वव्यापक हैं यह नहीं माना जा सकता है क्योंकि आकाश लोक और अलोक दोनों ही में व्यापक माना जाता है परन्तु मुक्त पुरुष को ऐसा नहीं मान सकते क्योंकि अलोक में आकाश के सिवाय अन्य वस्तु का रहना सम्भव नहीं है। एवं वह मुक्तात्मा लोकमात्र व्यापक है यह भी नहीं हो सकता है क्योंकि मुक्ति होने से पूर्व उसमें समस्त लोकव्यापकता नहीं पाई जाती है किन्तु नियत देश काल आदि के साथ ही उसका सम्बन्ध पाया जाता है तथा वह नियत सुख दुःख का ही अनुभव करने वाला देखा जाता है। अतः : मुक्ति होने के पश्चात् भी उसकी व्यापकता नहीं मानी जा सकती है क्योंकि मुक्ति होने के पश्चात् वह व्यापक हो जाता है इसमें कोई प्रमाण नहीं है अतः उस मुक्तात्मा का जो निज स्थान है वह लोकाग्र है यही विवेकी पुरुष को मानना चाहिये । कहा है कि "कर्मविप्रमुक्तस्य ऊर्ध्वगतिः " १५० अर्थात् कर्मबन्धन से छूटे हुए जीव की ऊर्ध्वगति होती है वह ऊर्ध्वगति लोकाग्र ही है। जैसे तुम्बा, एरण्ड का फल और धनुष से छूटा हुआ बाण और धूम पूर्व प्रयोग से गति करते हैं इसी तरह सिद्ध पुरुष भी पूर्व प्रयोग से ही गति करते हैं किन्तु उस समय वे कोई क्रिया नहीं करते हैं ।। २५-२६ । णत्थि साहू असाहू वा, णेवं सण्णं णिवेसए । अतिथ साहू असाहू वा, एवं सण्णं णिवेसए ॥ २७॥ भावार्थ - साधु और असाधु नहीं हैं ऐसा नहीं मानना चाहिये किन्तु साधु और असाधु हैं यही बात माननी चाहिये । after कल्ला पावे वा, णेवं सण्णं णिवेसए । अस्थि कल्लण पावे वा, एवं सण्णं णिवेसए ॥ २८ ॥ भावार्थ - कल्याणवान् तथा पापी नहीं हैं ऐसा नहीं मानना चाहिये किन्तु कल्याणवान् और पापी हैं यही बात माननी चाहिये। विवेचन- किसी का सिद्धान्त है कि ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप जो तीन रत्न हैं उनका पूर्णरूप से पालन करना सम्भव नहीं है और इनका पूर्णरूप से पालन किये बिना साधु नही होता है इसलिये इस जगत् में कोई साधु नहीं है और साधु नहीं होने से असाधु भी नहीं है क्योंकि ये दोनों ही सम्बन्धी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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