Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 165
________________ १५६ श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २ आर्द्रकमुनि का उदाहरण देकर यह बतलाया गया है कि अनाचार का त्याग और आचार का सेवन मनुष्य के द्वारा किया जा सकता है। यह असंभव नहीं किन्तु संभव है। वह साधक चाहे आर्य देश में उत्पन्न हुआ हो अथवा अनार्य देश में भी क्यों न उत्पन्न हुआ हो। पुराकडं अह ! इमं सुणेह, मेगंतयारी समणे पुरासी। से भिक्खुणो उवणेत्ता अणेगे, आइक्खतिण्डिं पुढो वित्थरेणं ॥१॥ कठिन शब्दार्थ - पुराकडं- पूर्वकृत, एगंतयारी - अकेले विचरने वाले, उवणेत्ता - अनेक मुनियों का नेता, वित्थरेणं - विस्तार से, आइक्खति - उपदेश करता है। भावार्थ - गोशालक कहता है कि - हे आईक ! महावीर स्वामी का यह पहला वृत्तान्त सुनो। महावीर स्वामी पहले अकेले विचरने वाले तथा तपस्वी थे। परन्तु इस समय वे अनेक भिक्षुओं को अपने साथ रखकर अलग-अलग विस्तार के साथ धर्म का उपदेश करते हैं। साऽऽजीविया पट्टवियाऽथिरेणं, सभागओ गणो भिक्खुमण्झे। आइक्खमाणो बहुजण्णमत्थं, ण संधयाइ अवरेण पुव्वं ॥२॥ एगंतमेवं अदुवा वि इण्हिं, दोऽवण्णमण्णं ण समेइ जम्हा । कठिन शब्दार्थ - आजीविया - आजीविका, पट्टविया-स्थापित की है, अथिरेणं - अस्थिर चित्त वाले, संधयाइ - मिलता है । • भावार्थ - उस चञ्चल चित्त वाले महावीर स्वामी ने यह जीविका स्थापित की है। वे जो सभा में जाकर अनेक भिक्षुओं के मध्य में बहुत लोगों के हित के लिये धर्म का उपदेश करते हैं यह इनका इस समय का व्यवहार इनके पहले व्यवहार से बिलकुल नहीं मिलता है। - इस प्रकार या तो महावीर स्वामी का पहला व्यवहार एकान्त वास ही अच्छा हो सकता है अथवा इस समय का अनेक लोगों के साथ रहना ही अच्छा हो सकता है ? परन्तु दोनों अच्छे नहीं हो सकते हैं क्योंकि दोनों का परस्पर विरोध है मेल नहीं है। - विवेचन - प्रत्येकबुद्ध राजकुमार आर्द्रक जब भगवान् महावीर स्वामी के निकट जा रहे थे उस समय गोशालक उनकी इस इच्छा को बदलने के लिये उनके पास आया और कहने लगा कि हे आर्द्रक! पहले मेरी बात सुन लो पीछे जो इच्छा हो वह करना। मैं तुम्हारे महावीर स्वामी का पहला वृत्तान्त बताता हूँ उसे सुनो । यह महावीर स्वामी पहले जनरहित एकान्त स्थान में विचरते हुए कठिन तपस्या करने में प्रवृत्त रहते थे परन्तु इस समय वे तपस्या के क्लेश से पीड़ित होकर उसे त्याग कर देवता आदि प्राणियों से भरी सभा में जाकर धर्म का उपदेश करते हैं । उन्हें अब एकान्त अच्छा नहीं लगता है अतः वे अब अनेक शिष्यों को अपने साथ रखते हुए तुम्हारे जैसे भोले जीवों को मोहित करने के लिये विस्तार के साथ धर्म की व्याख्या करते हैं । अपने पहले आचरण को छोड़कर महावीर स्वामी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226