Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करते हैं वह किसी की भी निन्दा नहीं है। यदि ऐसा करना भी निन्दा हो तब तो आग गर्म होती है और पानी ठण्डा होता है यह कहना भी निन्दा मानना चाहिये अतः वस्तु के सच्चे स्वरूप को बताना निन्दा नहीं है ।। ११-१२-१३-१४॥
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आगंतगारे आरामगारे, समणे उ भीए ण उवेइ वासं ।
दक्खा हु संति बहवे मणुस्सा, ऊणाइरित्ता य लवालवा य ।। १५ ।
कठिन शब्दार्थ - आगंतगारे धर्मशालाओं में, आरामगारे- आराम गृहों में (बगीचों में ), भीए भीत- भीरु (डरपोक) ।
भावार्थ - गोशालक आर्द्रक मुनि से कहता है कि तुम्हारे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी बड़े डरपोक हैं इसीलिये वे जहाँ बहुत से आगन्तुक लोग उतरते हैं ऐसे गृहों में तथा आराम गृहों में निवास नहीं करते हैं। वे सोचते हैं कि उक्त स्थानों में बहुत से मनुष्य कोई न्यून कोई अधिक कोई वक्ता तथा कोई मौनी निवास करते हैं ॥ १५ ॥
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मेहाविणो सिक्खिय बुद्धिमंता, सुत्तेहि अत्येहि य णिच्छयण्णा ।
पुच्छिंसु मा णे अणगार अण्णे, इति संकमाणो य उवेइ तत्थ ।। १६ ॥ : कठिन शब्दार्थ - णिच्छयण्णा निश्चय किये हुए, पुच्छिंसु- पूछ ले, संकमाणो - आशंका
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करता हुआ ।
भावार्थ- कोई बुद्धिमान्, कोई शिक्षा पाए हुए, कोई मेधावी तथा कोई सूत्र और अर्थों को पूर्णरूप से निश्चय किए हुए पुरुष वहाँ निवास करते हैं अतः ऐसे दूसरे साधु मेरे से कुछ प्रश्न न पूछ बैठें ऐसी आशंका करके वहाँ महावीर स्वामी नहीं जाते हैं ॥ १६ ॥
it कामकिच्चा ण य बालकिच्चा, रायाभिओगेण कुओ भएणं वियागरेज्ज पसिणं ण वावि, सकामकिच्चेणिह आरियाणं ।। १७ ॥ कठिन शब्दार्थ - कामकिच्चा - कामकृत्य- बिना प्रयोजन कार्य नहीं करते, बालकिच्चा बालकृत्य, पसिणं - प्रश्न का, सकामकिच्चेण- सकामकृत्य- तीर्थङ्कर नाम कर्म के क्षय के लिए, इह - इस लोक में ।
भावार्थ - आर्द्रकमुनि गोशालक से कहते हैं कि भगवान् महावीर स्वामी बिना प्रयोजन के कोई कार्य नहीं करते हैं तथा वे बालक की तरह बिना विचारे भी कोई क्रिया नहीं करते हैं। वे राजभय से भी धर्मोपदेश नहीं करते हैं फिर दूसरे भय की तो बात ही क्या है ? भगवान् प्रश्न का उत्तर देते हैं. और नहीं भी देते हैं। वे इस जगत् में आर्य लोगों के लिये तथा अपने तीर्थंकर नाम के क्षय के लिये धर्मोपदेश करते हैं ॥ १७ ॥
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