Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 168
________________ अध्ययन ६ १५९ यही उचित था क्योंकि उस समय उनको सर्वज्ञता प्राप्त न होने से धर्मोपदेश करना ठीक नहीं था क्योंकि वस्तु के स्वरूप को ठीक-ठीक जानकर ही धर्मोपदेश देना उचित है, अन्यथा नहीं। परन्तु अब भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है और उसके प्रभाव से उन्होंने समस्त चराचर जगत् को अच्छी तरह जान लिया है। प्राणियों के अधःपतन का मार्ग क्या है और उनके कल्याण का साधन क्या है, यह भगवान् ने केवलज्ञान द्वारा जान लिया है और भगवान् दयालु है इसलिये जिस तरह प्राणियों का हित हो वैसा उपदेश करना भगवान् का कर्तव्य है अतः अब वे जगत् की भलाई के लिये धर्मोपदेश करते हैं । भगवान् धर्मोपदेश देकर किसी तरह का स्वार्थ साधन करना नहीं चाहते क्योंकि उनका अब कोई स्वार्थ शेष नहीं है। जब तक केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है तभी तक जीव अपूर्णकाम और स्वार्थ साधन के प्रपञ्च में लगा रहता है परन्तु केवल ज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर उसका किसी भी प्राणी के अधीन स्वार्थ शेष नहीं रहता है अतः भगवान् के ऊपर स्वार्थ का आरोप करना भी मिथ्या है। स्वार्थ के लिये जो अपनी अवस्थाओं का परिवर्तन करता है वही दाम्भिक है परन्तु स्वार्थ रहित पुरुष लोकोपकार के लिये जो उत्तम अनुष्ठान करता है वह दम्भ नहीं है। भगवान् महावीर स्वामी स्वार्थ रहित, ममता रहित और राग द्वेष रहित हैं। वे केवल प्राणियों के कल्याण के लिये धर्म का उपदेश करते हैं इसलिये वे महात्मा महापुरुष और परम दयालु हैं, दाम्भिक नहीं है। जिस पुरुष को भाषा के दोषों का ज्ञान नहीं है उसका भाषण भी दोष का कारण होता है अतः धर्मोपदेश करने वाले को भाषा के दोषों का ज्ञान और उनका त्याग आवश्यक है। जो पुरुष भाषा के दोषों को जानकर उनका त्याग करता हुआ भाषण करता है उसका भाषण करना दोष जनक नहीं होता किन्तु धर्म की वृद्धि आदि अनेक गुणों का कारण होता है इसलिये भगवान् महावीर स्वामी का धर्मोपदेश के लिये भाषण करना गुण है, दोष नहीं है क्योंकि वे भाषा के दोषों को त्यागकर भाषण करने वाले और प्राणियों को पवित्र मार्ग का प्रदर्शन कराने वाले हैं। धर्मोपदेश करते समय यद्यपि भगवान् को अनेक प्राणियों के मध्य में स्थित होना पड़ता है तथापि इससे उनकी कोई क्षति नहीं होती है। वे पहले जिस तरह एकान्त का अनुभव करते थे उसी तरह इस समय भी एकान्त का ही अनुभव करते हैं क्योंकि उनके हृदय में किसी के प्रति राग या द्वेष नहीं है इसलिये हजारों प्राणियों के मध्य में रहते हुए भी वे भाव से अकेले ही हैं। लोगों के मध्य में रहने से भगवान् के शुद्ध भाव में कोई अन्तर नहीं होता जैसे एकान्त स्थान में उनके शुक्ल ध्यान की स्थिति रहती है उसी तरह हजारों मनुष्यों के मध्य में भी वह अविचल बना रहता है। ध्यान में अन्तर होने के कारण राग द्वेष हैं इसलिये रागद्वेष रहित पुरुष के ध्यान में अन्तर होने का कोई कारण नहीं है। किसी विद्वान् ने कहा है कि "राग द्वेषौ विनिर्जित्य किमरण्ये करिष्यसि । अथ नो निर्जितावेतौ किमरण्ये करिष्यसि॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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