Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ५
१४९
सर्वविषयक ज्ञान होकर सर्वज्ञता प्राप्त होती है। कोई कोई सर्वज्ञ स्वीकार नहीं करते हैं वे कहते हैं किमनुष्य सब से अधिक ज्ञाता हो सकता है परन्तु सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। जो मनुष्य दस हाथ ऊंचा आकाश में कूद सकता है वह अभ्यास करते करते इससे अधिक कूद सकता है परन्तु दस बीस योजन तक वह लाख अभ्यास करने पर भी नहीं कूद सकता है इसी तरह शास्त्र आदि के अभ्यास करने से मनुष्य महान् बुद्धिमान् हो सकता है लेकिन वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता है।
___ परन्तु बुद्धिमानों को यह नहीं मानना चाहिये क्योंकि शास्त्र आदि के अभ्यास करने से बुद्धि की . वृद्धि प्रत्यक्ष देखी जाती है इससे सिद्ध होता है कि-बुद्धि की वृद्धि यदि इसी प्रकार होती चली जाय
और उसमें किसी प्रकार का अन्तराय न पड़े तो वह निरन्तर बढ़ती हुई अवश्य अपनी अन्तिम मर्यादा तक पहुंच सकती है वह मर्यादा सर्वज्ञता ही है क्योंकि इससे पहले बुद्धि की वृद्धि की समाप्ति नहीं है। पूर्वपक्षी ने सर्वज्ञता के विरोध में जो कूदने वाले पुरुष का दृष्टान्त दिया है वह ठीक नहीं है क्योंकि कूदने वाला कूद कर आकाश में जहां तक जाता है उस मर्यादा को यदि वह बराबर उल्लंघन करता चला जाय तो वह क्यों नहीं दस बीस योजन तक कूद सकता है ? परन्तु वह उस मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकता है इसलिये वह दस बीस योजन तक नहीं कूद सकता है। यदि बुद्धि की वृद्धि करने वाला भी इसी तरह वृद्धि की पूर्व मर्यादा का उल्लंघन न करने पावे तो वह भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता है इसमें कोई सन्देह नहीं है परन्तु जो पूर्व पूर्व मर्यादाओं को उल्लंघन करता हुआ आगे आगे चलता जा रहा है उसको सर्वज्ञता प्राप्त न करने में कोई कारण नहीं है। वस्तुतः इस जीव में स्वाभाविक ही सर्वज्ञता स्थित है वह आवरण से ढकी हुई है उस आवरण के सम्पूर्ण रूप से क्षय हो जाने पर सर्वज्ञता को कौन रोक सकता है ? वह अपने आप हो जाती है। वह सर्वज्ञ पुरुष सिद्धि को या मुक्ति को प्राप्त करता है इसलिये सिद्धि या मुक्ति अवश्य है यही विवेकी पुरुष को मानना चाहिये परन्तु सिद्धि का अभाव नहीं।
कोई कहते हैं कि-यह जगत् अञ्जन से भरी हुई पेटी के समान जीवों से संकुल है इसलिये हिंसा से बच जाना इसमें सम्भव नहीं है कहा है कि
"जले जीवाः स्थले जीवाः, आकाशे जीवमालिनि।
जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः ।"
अर्थात् जल में जीव है, स्थल में जीव है, आकाश में जीव है इस प्रकार जीवों से परिपूर्ण इस लोक में साधु अहिंसक कैसे हो सकता है ? अतः हिंसा के न रुकने से किसी की भी मुक्ति होना सम्भव नहीं है । परन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि-जो साधु जीव हिंसा से बचने के लिये सदा प्रयत्न करता रहता है और समस्त आस्रवद्वारों को रोक कर पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करता हुआ ४२ दोषों को टाल कर निरवद्य आहार ग्रहण करता है एवं निरन्तर ई-पथ का परिशोधन करता हुआ अपनी प्रवृत्ति करता है उसका भाव शुद्ध है ऐसे पुरुष के द्वारा यदि कदाचित् द्रव्यतः किसी
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