Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
समानता होने पर भी धर्म और अधर्म की भिन्नता के कारण ही उक्त विचित्रता होती है अतः धर्म और अधर्म को न मानना भूल है । अतएव विद्वानों ने कहा है कि -
__ "ण हि कालादिहिंतो केवलएहिंतो जायए किंचि।
इह मुग्गरंधणाइ वि, ता सव्वे समुदिया हेऊ ॥" अर्थात् - संसार का कोई भी कार्य केवल काल आदि के द्वारा सिद्ध नहीं हो सकता किंतु धर्म और अधर्म आदि भी वहां कारणरूप से रहते हैं अतः धर्म और अधर्म के साथ मिले हुए ही काल आदि सबके कारण हैं अकेले नहीं है। इस कारण धर्म और अधर्म नहीं है यह विवेकी पुरुषों को नहीं मानना चाहिये यह चौदहवीं गाथा का आशय है। ___बन्ध और मोक्ष नहीं है यह कई लोगों की मान्यता है। वे कहते हैं कि-आत्मा अमूर्त है इसलिये कर्म पुद्गलों का उसमें बन्ध होना सम्भव नहीं है। जैसे अमूर्त आकाश में पुद्गलों का लेप नहीं होता है इसी तरह आत्मा में भी नहीं हो सकता है इसलिये आत्मा में बन्ध नहीं मानना चाहिये। एवं मोक्ष भी नहीं मानना चाहिये क्योंकि आत्मा को जब बन्ध ही नहीं है तब मोक्ष किस बात से होगा अतः बन्ध
और मोक्ष दोनों ही मिथ्या हैं यह किसी की मान्यता है । ____वस्तुतः यह सिद्धान्त ठीक नहीं है क्योंकि अमूर्त के साथ मूर्त का सम्बन्ध देखा जाता है जैसे कि-विज्ञान अमूर्त पदार्थ है मूर्त नहीं है फिर भी मद्य आदि के पान से उसमें विकृति प्रत्यक्ष देखी जाती है। वह विकृति, अमूर्त विज्ञान के साथ मूर्त मद्य का सम्बन्ध माने बिना सम्भव नहीं है। अतः जैसे अमूर्त विज्ञान के साथ मूर्त मद्य आदि का सम्बन्ध होता है इसी तरह अमूर्त जीव के साथ मूर्त कर्मपुद्गलों का बन्ध भी होता है तथा यह संसारी जीव अनादिकाल से तैजस और कार्मण शरीर के साथ सम्बद्ध हुआ ही चला आ रहा है इनसे रहित अकेला कभी नहीं हुआ इसलिये यह कञ्चित् मूर्त भी है इस कारण कर्मपुद्गलों का बन्ध इसमें असंभव नहीं है । अत: बन्ध है यही मानना चाहिये तथा बन्ध है इसलिये मोक्ष भी है यह भी मानना चाहिये, यह १५वीं गाथा का आशय है ।। १४-१५॥
णत्थि पुण्णे व पावे वा, जेवं सण्णं णिवेसए । अत्थि पुण्णे व पावे वा, एवं सण्णं णिवेसए ॥१६॥
भावार्थ - पुण्य और पाप नहीं हैं ऐसा ज्ञान नहीं रखना चाहिए । किन्तु पुण्य और पाप हैं यही ज्ञान रखना चाहिये।
त्थि आसवे संवरे वा, जेवं सण्णं णिवेसए । अस्थि आसवे संवरे वा, एवं सणं णिवेसए ॥ १७॥
भावार्थ - आस्रव और संवर नहीं हैं यह ज्ञान नहीं रखना चाहिये किन्तु आस्रव और संवर हैं यही ज्ञान रखना चाहिये।
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