Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सयगडांग सत्र श्रतस्कंध २
तथापि वह अज्ञेय नहीं है क्योंकि-घटपंटादि रूप कार्य के द्वारा वे अनुमान से ग्रहण किये जाते हैं तथा अवयवी का ग्रहण तो प्रत्यक्ष ही होता है उसके लिये अन्य प्रमाण की कोई आवश्यकता ही नहीं. है। वह अवयवी प्रत्येक अवयवों में व्याप्त है इसीलिये किसी वस्तु के एक अंश को देखकर भी उसे जान लेते हैं कि-यह अमुक वस्तु है परन्तु वह अवयवी अपने अवयवों से एकान्त भिन्न है अथवा वह एकान्त अभिन्न है यह नहीं मानना चाहिये किन्तु वह अवयव से कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न है यह अनेकान्त सिद्धान्त ही सर्व दोषों से रहित और मानने योग्य है। इस प्रकार लोक और अलोक की सत्ता मान कर वे अवश्य हैं यही विद्वानों को मानना चाहिये परन्तु वे नहीं है यह नहीं मानना चाहिये यही बारहवीं गाथा का आशय है ।
तेरहवीं गाथा के द्वारा जीव और अजीव पदार्थों का अस्तित्व सिद्ध किया गया है। पञ्चमहाभूतवादी कहते हैं कि-जीव नामक कोई पदार्थ नहीं है वह अविवेकियों द्वारा मूर्खतावश माना गया है। चलना, फिरना, सोना, जागना, उठना, बैठना, सुनना आदि सभी कार्य्य, शरीर के रूप में परिणत पाँच महाभूतों के द्वारा ही किये जाते हैं क्योंकि चैतन्य रूप गुण शरीर के रूप में परिणत पाँच महाभूतों का ही गुण है अतः शरीर में चैतन्य गुण को देखकर उसके गुणी अप्रत्यक्ष आत्मा की कल्पना करना भूल है यह नास्तिकों का मत है तथा आत्माद्वैतवादी कहते हैं कि - यह समस्त जगत् एक आत्मा (ब्रह्म) का . परिणाम है । जो पदार्थ हो चुके हैं, जो हैं और जो होंगे वे सभी एक आत्मा के कार्य हैं इस कारण सभी एक आत्मस्वरूप हैं एक आत्मा से भिन्न दूसरा कोई भी पदार्थ जगत् में नहीं है। चेतन और अचेतन जो कुछ भी पदार्थ दिखाई देते हैं सभी आत्मस्वरूप ही है अतः आत्मा से भिन्न जीव और अजीव आदि पदार्थों को मानना भूल है यह आत्माऽद्वैतवादियों का मन्तव्य है ।।
परन्तु यह आहेत.दर्शन इन दोनों मतों को अयुक्त बतलाता हुआ यह उपदेश देता है कि-"जीव, अजीव आदि पदार्थ नहीं है" ऐसी स्थापना विवेकी को कदापि नहीं करनी चाहिये किन्तु ये दोनों ही पदार्थ हैं यही बात माननी और कहनी चाहिये। जीव एक स्वतन्त्र और अनादि पदार्थ है वह पाँच महाभूतों का कार्य नहीं है क्योंकि पाँच महाभूत जड़ है अतः उनसे चैतन्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है तथा वे पाँच महाभूत जड़ होने के कारण बिना किसी की प्रेरणा के शरीर के आकार में परिणत भी नहीं हो सकते हैं एवं वे पांच महाभूत यदि अपने में अविद्यमान चैतन्य की उत्पत्ति करते हैं तो वे नित्य नहीं कहे जा सकते क्योंकि जो वस्तु सदा एक स्वभाव में रहती है वही नित्य कहलाती है। अतः पहले से विद्यमान चैतन्य की उत्पत्ति यदि पाँच महाभूतों से मानें तब तो यह एक प्रकार से जीव को ही मान लेना है क्योंकि वह चैतन्य पहले से ही विद्यमान होने के कारण नवीन उत्पन्न नहीं हुआ । यह चैतन्य गुण पांच महाभूतों का नहीं है क्योंकि पांच भूतों से उत्पन्न घटपटादि पदार्थों में चैतन्य अनुभव नहीं किया जाता है अतः नास्तिकों का सिद्धान्त मानने योग्य नहीं है। जगत् में जितने प्राणी हैं सभी अपने-अपने जीव का अस्तित्व अनुभव करते हैं । सभी कहते हैं कि-"मैं हूँ" । कोई भी "मैं नहीं हूँ" ऐसा नहीं
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