Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ५
१३३
कठिन शब्दार्थ - खुद्दगा - क्षुद्र (छोटे), महालया - महाकाय वाले, सरिसं - समान, असरिसं - असमान, वेरंति - वैर होता है।
भावार्थ - इस जगत् में जो एकेन्द्रिय आदि क्षुद्र प्राणी हैं और जो हाथी घोड़े आदि महाकाय वाले प्राणी हैं उन दोनों की हिंसा से समान ही वैर होता है अथवा समान नहीं होता है यह नहीं कहना चाहिए।
एएहिं दोहिं ठाणेहिं, ववहारो ण विज्जड़। एएहिं दोहिं ठाणेहि, अणायारं तु जाणए ॥७॥
भावार्थ - इन दोनों एकान्तमय वचनों से व्यवहार नहीं होता है इसलिये इन दोनों एकान्तमय वचनों को बोलना अनाचार सेवन समझना चाहिये।
विवेचन - इस जगत् में एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि जो क्षुद्र प्राणी हैं तथा क्षुद्र शरीर वाले जो पञ्चेन्द्रिय जीव हैं एवं हाथी घोड़े आदि जो महाकाय वाले प्राणी है उन सभी की आत्मा समान समान प्रदेश वाली है इसलिये उन सभी को मारने से समान ही कर्मबन्ध होता है यह एकान्त वचन नहीं बोलना चाहिये तथा इन प्राणियों के ज्ञान इन्द्रिय और शरीरों में सदृशता नहीं है इसलिये इनके मारने से समान कर्मबन्ध नहीं होता है यह भी एकान्त वचन नहीं कहना चाहिये। इस प्रकार इन एकान्त वचनों के निषेध का अभिप्राय यह है कि-उन मारे जाने वाले प्राणी की क्षुद्रता और महत्ता ही कर्मबन्ध की क्षुद्रता और महत्ता के कारण नहीं है किन्तु मारने वाले का तीव्र भाव, मन्दभाव, ज्ञानभाव, अज्ञानभाव, महावीर्य्यता और अल्पवीर्य्यता भी कारण है। अतः मारे जाने वाले प्राणी और मारने वाले प्राणी इन दोनों की विशिष्टता से कर्म बन्ध की विशिष्टता होती है अतः एक मात्र मारे जाने वाले प्राणी के हिसाब से ही कर्मबन्ध के न्यूनाधिक्य की व्यवस्था करना ठीक नहीं है अतः यह अनाचार है। बात यह है कि-जीव नित्य है इसलिये उसकी हिंसा सम्भव नहीं है इसलिये इन्द्रिय आदि के घात को हिंसा कहते हैं जैसा कि
पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बल, उच्छासनिःश्वासमथान्यदायुः प्राणाः दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणन्तुहिंसा॥
पांच इन्द्रियाँ, तीन प्रकार के बल उच्छास निश्वास और आयु, ये दस प्राण भगवान् द्वारा कहे गये हैं इसलिये इनको शरीर से अलग कर देना हिंसा है। वह हिंसा भाव की अपेक्षा-से-कर्मबन्ध को उत्पन्न करती है यही कारण है कि रोगी के रोग की निवृत्ति के लिये भली भांति चिकित्सा करते हुए वैध के हाथ से यदि रोगी की मृत्यु हो जाती है तो उस वैद्य को उस रोगी के साथ वैर का बन्ध नहीं होता है तथा दूसरा मनुष्य जो रस्सी को सर्प मान कर उसे पीटता है उसको कर्मबन्ध अवश्य होता है क्योंकि उसका भाव दूषित है। अतः शास्त्रकार कहते हैं कि-विवेकी पुरुष को कर्मबन्ध के विषय में एकान्त
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