Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ३
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इस जगत् में समस्त प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म धारण करते हैं । कोई देवता, कोई नारक, कोई मनुष्य और कोई तिर्य्यञ्च योनि में कर्म से प्रेरित होकर उत्पन्न होते हैं, किसी काल आदि की प्रेरणा से नहीं । कोई कहते हैं कि " जो जीव इस भव में जैसा होता है वह पर भव में भी वैसा ही होता है" परन्तु यह बात इस पाठ से विरुद्ध होने असङ्गत है । इस पाठ में स्पष्ट कहा है कि जीव अपने कर्मानुसार भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म धारण करता है अतः " जो जैसा है वह सदा वैसा ही रहता है" यह बात मिथ्या है । ऐसा मानने पर तो जो देवता है वह सदा देवता ही रहेगा और जो नारकी है वह सदा नारकी ही बना रहेगा फिर तो कर्मवाद का सिद्धान्त सर्वथा नष्ट हो जायगा और संसार की विभिन्नता किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं होगी । अतः प्राणी अपने कर्मानुसार भिन्न-भिन्न गति को प्राप्त करते हैं यह शास्त्रोक्त सिद्धान्त ही ध्रुव सत्य जानना चाहिये । यद्यपि सम्पूर्ण प्राणी सुख के अभिलाषी और दुःख के द्वेषी होते हैं तथापि अपने पूर्व कृत कर्म के प्रभाव से उन्हें दुःख सहन करना ही पड़ता है। वे बिना भोगे मुक्त नहीं होते हैं । जो प्राणी जहां उत्पन्न होते हैं। वे वहीं आंहार करते हैं । वे आहार के विषय में सावध निरवद्य का कुछ विचार नहीं रखते हैं। अतः सावध आहार का सेवन करके वे कर्मों का संचय करते हैं और . कर्मों का संचय करके वे उनका फलभोगने के लिए अनन्त काल तक संसार चक्र में भ्रमण करते रहते हैं। इसलिए विवेकी पुरुषों को सदा उद्गम आदि ४२ दोष रहित निरवद्य एवं अचित्त शुद्ध आहार ग्रहण करने का नियम पूर्ण रूप से पालन करना चाहिये । साथ ही इन्द्रिय और मन को वश में करके सांसारिक विषयों का चिन्तन छोड़कर ज्ञान और संयम के आराधन में प्रयत्नशील बनना चाहिये । जो मनुष्य ऐसा करता है वही संसार सागर को पार करके अक्षय सुख को प्राप्त करता है क्योंकि अक्षय सुख को प्राप्त करने के लिये शुद्ध संयम पालन के सिवाय जगत् में कोई दूसरा मार्ग नहीं है । ६२ ॥
त्ति बेमि इति ब्रवीमि श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के मुखारविन्द से सुना है वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ। अपनी मनीषिका (बुद्धि) से कुछ नहीं कहता हूँ ।
।। तीसरा अध्ययन समाप्त ॥
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