Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ४
आया - आत्मा (जीव), अपच्चक्खाणी - अप्रत्याख्यानी, अकिरियाकुसले - अक्रिया-कुशल, मिच्छासंठिए - मिथ्या संस्थित, एगंतसुत्ते - एकान्त सुप्त, अवियारमणवयणकायवक्के - मन, वचन, काया और वाक्य के विचार से रहित, अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे - अप्रतिहत अप्रत्याख्यात पाप कर्म वाला, सुविणं - स्वप्न, अवि - भी ।
भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने ऐसा कहा था (अथवा आयुष्मान् भगवान् महावीर स्वामी ने ऐसा कहा था)
और मैंने सुना था - ... इस सूत्र में जीव को आत्मा शब्द से कहने का आशय यह है कि - यह जीव सदा से नानाविध योनियों में भ्रमण करता चला आ रहा है । जो निरन्तर भ्रमण करता रहता है उसे आत्मा कहते हैं क्योंकि आत्मा शब्द की व्युत्पत्ति - (अतति सततं गच्छतीति आत्मा) यह होती है। इसका अर्थ निरन्तर 'भिन्न-भिन्न गतियों में गमन करना है। इस जीव के साथ अनादि काल से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगों का सम्बन्ध लगा हुआ है इसलिये यह अनादिकाल से अप्रत्याख्यानी रहता हुआ चला आ रहा है परन्तु वह शुभ कर्म के उदय से प्रत्याख्यानी भी पीछे से हो जाता है यह भाव दिखाने के लिये ही यहाँ मूल पाठ में 'अपि' शब्द का प्रयोग किया है। यहाँ आत्म शब्द से जीव के निर्देश करने का अभिप्राय दूसरे दर्शनों के सिद्धान्तों का खण्डन करना भी है, वह इस प्रकार समझना चाहिये - - , सांख्यवादी, जीव को उत्पत्ति विनाश से वर्जित और स्थिर तथा एक स्वभाव वाला मानते हैं परन्तु ऐसा मानने से जीव की नानाविध योनियों में जाना संभव नहीं है एवं वह आत्मा जबकि स्थिर है तब एक तृण को भी नम्र करने में समर्थ नहीं हो सकता है फिर वह प्रत्याख्यान को किस तरह प्राप्त कर सकता है। किन्तु सदा अप्रत्याख्यानी ही बना रहेगा अतः सांख्यवाद युक्ति सङ्गत नहीं है यह आशय जीव को आत्मपद से निर्देश करने का प्रतीत होता है। इसी तरह बौद्धमत में भी आत्मा में प्रत्याख्यान संभव नहीं है क्योंकि वे आत्मा को एकान्त क्षणिक मानते हैं। अतः उनके मत में स्थितिहीन होने के कारण आत्मा का प्रत्याख्यानी होना सम्भव नहीं हैं।
__ शुभ अनुष्ठानों को यहां क्रिया कहा है उस क्रिया में जो पुरुष कुशल है उसको 'क्रिया कुशल' कहते हैं एवं जो शुभ क्रिया में कुशल नहीं है उसको 'अक्रिया कुशल' कहते हैं आशय यह है कि आत्मा अनादिकाल से अप्रत्याख्यानी और शुभ क्रिया करने में अकुशल रहता हुआ चला आ रहा है परन्तु पीछे से पुण्य के उदय होने पर प्रत्याख्यानी और क्रियाकुशल भी हो जाता है एवं आत्मा मिथ्यात्व के उदय में स्थित, प्राणियों को एकान्त दण्ड देने वाला, राग द्वेष से पूर्ण बालक के समान अविवेकी और सोया हुआ भी होता है जैसे द्रव्य से सोया हुआ पुरुष शब्दादि विषयों को नहीं जानता है इसी तरह भाव से सोया हुआ आत्मा हित और अहित की प्राप्ति तथा परिहार को नहीं जानता है। आत्मा अपने मन वचन काय और वाक्य को प्राणियों की विराधना का विचार न रखता हुआ भी प्रयोग करता है तथा आत्मा तप के द्वारा अपने पूर्व पाप को नाश और विरति स्वीकार करके भावी पाप का प्रत्याख्यान
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