Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
गब्भं, जम्माओ जम्मं, माराओ मारं, णरगाओ णरगं, दुक्खाओ दुक्खं, दाहिणगामिए णेरइए कण्हपक्खिए आगमिस्साणं दुलभबोहिए यावि भवइ, एस ठाणे अणारिए अकेवले जाव असव्व-दुक्ख-पहीणमग्गे एगंतमिच्छे असाहू पढमस्स ठाणस्स अधम्मपक्खस्स विभंगे एवमाहिए ॥३७॥
कठिन शब्दार्थ - पव्वयग्गे - पर्वत के अग्रभाग में, णिण्णं - नीचा ।
भावार्थ - एकान्त रूप से पाप कर्म करने में आसक्त पुरुष इस प्रकार नरक में गिरता है जैसे पर्वत के अग्रभाग में उत्पन्न वृक्ष जड़ कट जाने पर एकाएक नीचे गिर जाता है। ऐसे पापी को कभी सुख नहीं मिलता है। वह बार बार एक गर्भ से दूसरे गर्भ में, एक जन्म से दूसरे जन्म में, एक मृत्यु से दूसरे मृत्यु में, और एक नरक से दूसरे नरक में जाता रहता है । अतः इस पुरुष का स्थान अनार्य पुरुषों का स्थान हैं। इसमें केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है और यह समस्त दुःखों का नाशक नहीं हैं किन्तु एकान्त मिथ्या और बुरा है अतः बुद्धिमान् पुरुषों को इसे दूर से ही त्याग देना चाहिये। यह प्रथम अधर्म पक्ष का वर्णन किया गया है ।। ३७॥
'अहावरे दोच्चस्स ठाणस्स धम्म पक्खस्स विभंगे एवमाहिग्जइ । इह खलु पाईणं वा ४ संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-अणारंभा, अपरिग्गहा, धम्मिया, धम्माणुया धम्मिट्ठा जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरति । सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा सुसाहू सव्वओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए जाव जे यावण्णे, तहप्पगारा सावज्जा अबोहिया कम्मंता पर-पाण-परियावणकरा कज्जति तओ वि पडिविरया जावज्जीवाए। ___ कठिन शब्दार्थ - सुप्पडियाणंदा - सुप्रत्यानंद - शीघ्र प्रसन्न होने वाले, पडिविरया - प्रतिविरत-निवृत्त ।
भावार्थ - अधर्म पक्ष के वर्णन के पश्चात् धर्म पक्ष का वर्णन किया जाता है । इस जगत् में कोई कोई उत्तम पुरुष आरम्भ नहीं करते हैं और धर्मोपकरण के सिवाय दूसरे किसी परिग्रह को नहीं रखते हैं। वे स्वयं धर्माचरण करते हैं और दूसरे को भी इसकी आज्ञा देते हैं, वे धर्म को ही अपना इष्ट मानते. हैं और धर्म से ही जीविका का साधन करते हुए अपना समय व्यतीत करते हैं। उनका शील और व्रत अति उत्तम होता है तथा वे शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं। वे उत्तम कोटि के साधु हैं और वे जीवन भर सब प्रकार की जीवहिंसाओं से निवृत्त रहते हैं। दूसरे लोग प्राणियों के घातक अज्ञानवर्धक जिन सावध कर्मों का अनुष्ठान करते हैं उन कर्मों से वे सदा अलग रहते हैं ।
से जहा णामए अणगारा भगवंतो इरियासमिया, भासा-समिया, एसणा-समिया,
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