Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन २
७
शब्दादि विषयों में अत्यन्त आसक्त वे अधार्मिक पुरुष थोड़े या बहुत काल तक भोग सेवन करके अनेक प्राणियों के साथ वैर उत्पन्न करते हैं तथा बहुत अधिक पाप का संग्रह करके उसके भार से अत्यन्त दब जाते हैं । जैसे लोह या पत्थर का गोला पानी में फेंका हुआ पानी के तल को पार कर पृथिवी के तल पर बैठ जाता है इसी तरह वे पापी जीव पृथिवी को पार करके नरक तल में जाकर बैठ जाते हैं। वे पुरुष पाप के भार से इतने दबे रहते हैं कि - वे पृथिवी के ऊपर ठहर नहीं सकते एक मात्र नरक ही उनका आश्रय होता है ।। ३५॥ .
तेणं णरगा अंतो वट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खरप्प-संठाण-संठिया, णिच्चंधयारतमसा ववगयगह-चंद-सूरणक्खत्त-जोइप्पहा, मेद-वसा-मंस-रुहिर-पूय-पडलचिक्खिल लित्ताणुलेवण-तला, असुइ वीसा, परम-दुब्भिगंधा, कण्हा, अगणिवण्णाभा, कक्खड-फासा, दुरहियासा, असुभा णरया, असुभा णरएसु वेयणाओ। णो चेव णरएसु णेरइया णिहायंति वा, पयलायंति वा, सुई वा, रइं वा, धिइं वा, मई वा, उवलभंते। ते णं तत्थ उज्जलं, पगाढं, विउलं, कडुयं, कक्कसं, चंडं, दुग्गं, तिव्वं, दुरहियासं णेरड्या वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति ।।३६॥
कठिन शब्दार्थ - खुरप्पसंठाणसंठिया - क्षुरप्र (खुरपे-उस्तरे) की आकृति वाले, णिच्चंधयारतमसा - तमोमय निरंतर अंधकार युक्त, ववगयगहचंदसूर णक्खत्त जोइप्पहा - ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र और ज्योतिषमंडल के प्रकाश से रहित, मेदवसा मंसरुहिरपूयपडल चिक्खिल्ल लित्ताणुलेवणतला - मेद चर्बी, मांस रक्त और पीव से उत्पन्न कीचड़ के तल वाले वीसा - सड़े हुए मांस युक्त, अगणिवण्णाभा - अग्नि के समान वर्ण वाले, कक्खडफासा - कठिन स्पर्श वाले, दुरहियासा.- असह्य वेदना वाले, पयलायंति - प्रचला अर्थात् बैठे बैठे नींद लेना।
भावार्थ - पूर्वोक्त अधार्मिक पुरुष जिन नरकों में जाते हैं वे नरक अन्दर से गोल और बाहर से चार कोण वाले हैं। नीचे से उनकी बनावट तेज उस्तुरे की धार के समान तीक्ष्ण होती है। उनमें चन्द्र, सूर्य, ग्रह और नक्षत्र आदि का प्रकाश नहीं होता किन्तु सदा घोर अन्धकार फैला रहता है। उनकी भूमि सड़े हुए मांस, रुधिर, चर्बी और पीव से लिप्त होती है। वे बड़े दुर्गन्ध वाले अपवित्र होते हैं, उनकी दुर्गन्ध सहन करने योग्य नहीं होती है। उनका स्पर्श काँटे से भी अधिक कर्कश होता है, अधिक कहां तक कहा जाय उनके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द सभी अशुभ होते हैं। उनमें रहने वाले प्राणी कभी सोकर के अथवा बैठे बैठे निद्रा को प्राप्त नहीं करते और वहां से भाग कर कहीं अन्यत्र भी नहीं जा सकते हैं । वे वहीं निरन्तर असह्य दुःखों को भोगते हुए रहते हैं ।। ३६॥ ।
से जहा णामए रुक्खे सिया पव्वयग्गे जाए, मूले छिण्णे, अग्गे गरुए, जओ णिण्णं, जओ विसमं, जओ दुग्गं, तओ पवडइ। एवामेव तहप्पगारे पुरिसजाए गब्भाओ
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