Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
९८
श्री सूयगडांग सूत्र श्रुतस्कंध २
.. कठिन शब्दार्थ - अग्झारोहत्ताए - अध्यारुह ।
भावार्थ - पूर्व सूत्रों के द्वारा वृक्ष से उत्पन्न होकर वृक्ष में ही स्थिति और वृद्धि को प्राप्त करने वाले जिन वृक्षों का वर्णन किया गया है उन वृक्षयोनिक वृक्षों में एक अध्यारुह नामक वनस्पति विशेष उत्पन्न होती है । वह वनस्पति, वृक्ष के ऊपर ही तथा उसके आश्रय से ही उत्पन्न होती है इसलिये इसे 'अध्यारुह' कहते हैं। वह वनस्पति जिस वृक्ष में उत्पन्न होती है उसी के स्नेह का आहार करती है तथा पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों को भी आहार करती है । वह उक्त शरीरों को आहार करके अपने रूप में परिणत कर लेती है तथा नाना प्रकार के रूप, रस, गंध, स्पर्श
और आकार वाली अनेक विध होती है। इस वनस्पति में अपने किये हुए कर्मों से प्रेरित होकर जीव उत्पन्न होते हैं यह जानना चाहिये ।। ४७॥ __ अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता अज्झारोह-जोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थ-वुकमा रुक्खजोणिएसु अज्झारोहेसु अज्झारोहत्ताए विउटुंति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्झारोहाणं सिणेहमाहारैति, ते जीवा पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरेवि य णं तेसिं अज्झारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीराणाणावण्णा जावमक्खायं ॥४८॥ ___ भावार्थ - वृक्ष से उत्पन्न होने वाले वृक्षों में जो अध्यारुहसंज्ञक वृक्ष उत्पन्न होते हैं उनके प्रदेशों की वृद्धि करने वाले दूसरे अध्यारुह वृक्ष उनमें भी उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार अध्यारुह वृक्षों में ही अध्यारुह रूप से उत्पन्न होने वाले वे वृक्ष अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्ष कहलाते हैं। वे अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्ष जिस अध्यारुह में उत्पन्न होते हैं उसी के स्नेह का आहार करते हैं तथा वे पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का भी आहार करते हैं। इनके भी नाना प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस, . स्पर्श और आकार वाले अनेक विध शरीर होते हैं यह जानना चाहिये ।। ४८॥
___ अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता अज्झारोह-जोणिया अज्झारोहसंभवा जाव कम्मणियाणेणं तत्थवुकमा अज्झारोहजोणिएसु अझारोहत्ताए विउद॒ति, ते जीवा तेसिं अमारोहजोणियाणं अझारोहाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारंति पुरविसरीरं आउसरीरं जाव सास्त्रविकडं संत, अवरेऽवि यणं तेसिं अमारोहजोणियाणं अज्झारोहाणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं ॥४९॥
. भावार्थ - श्री तीर्थकर देव ने वनस्पतिकाय के दूसरे और भेद भी कहे हैं इस जगत् में कोई जीव अध्यारह वृक्षों से उत्पन्न होते हैं और उन्हीं में स्थिति तथा वृद्धि को प्राप्त करते हैं । वे प्राणी कर्म से प्रेरित होकर वहाँ आते हैं और अध्यारुहयोनिक अध्यारुह वृक्षों में अध्यारुह रूप में उत्पन्न होते हैं। वे जीव अध्यारह योनिक अध्यारह वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं वे जीव पृथिवी, जल, तेज, वायु
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org