Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अध्ययन ३
जीव पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं। वे त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त कर डालते हैं। वे प्रासुक किये हुए तथा पहले खाये हुए और पीछे त्वचा के द्वारा खाये हुए पृथिवी आदि शरीरों को पचाकर अपने रूप में मिला लेते हैं। उन वृक्ष योनिक वृक्षों के नाना वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले दूसरे भी शरीर होते हैं। वे जीव कर्मवशीभूत होकर वृक्ष योनि वाले वृक्षों में उत्पन्न होते हैं यह श्री तीर्थङ्कर देव ने कहा है ॥ ४५ ॥
अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया, रुक्खसंभवा, रुक्खवुक्कमा, तजोणिया, तस्संभवा, तदुवक्कमा, कम्मोवगा, कम्मणियाणेणं तत्थवुक्कमा, रुक्खजोणिएसंरुक्खेसुमूलत्ताए, कंदत्ताए, खंधत्ताए, तयत्ताए, सालत्ताए, पवालत्ताए, पत्तत्ताए, पुष्फत्ताए, फलत्ताए, बीयत्ताए, विउटुंति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइ० णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति परिविद्धत्थं तं सरीरगं जाव सारूविकडं संतं, अवरेऽवि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं मूलाणं कंदाणं खंधाणं तयाणं सालाणं पवालाणं जाव बीयाणं सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जाव णाणाविहसरीर पुग्गलविउव्विया ते जीवा कम्मोववण्णगा भवंतीतिमक्खायं ॥४६॥
कठिन शब्दार्थ - परिविद्धत्यं - परिविध्वस्त-नष्ट किया हुआ।
भावार्थ - इस सूत्र के द्वारा यह उपदेश दिया गया है कि - वृक्ष के अवयव जो मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वक्, शाखा, प्रवाल, पत्र, फल, फूल और बीज हैं। इन दश वस्तुओं के जीव भिन्न-भिन्न हैं और वृक्ष का सर्वाङ्ग व्यापक जो जीव है वह इन से भिन्न है तथा पृथिवी-योनिक वृक्ष जैसे पृथिवी से उत्पन्न होकर पृथिवी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीरों का आहार करते हैं । जैसे पृथिवीयोनिक वृक्षों के नाना प्रकार के रूप, रस, वर्ण, गन्ध और स्पर्श होते हैं इसी तरह इनके भी होते हैं तथा ये जीव अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों के प्रभाव से ही इन योनियों में उत्पन्न होते हैं, किसी काल या ईश्वर आदि के प्रभाव से नहीं । शेष बातें पूर्ववत् जाननी चाहिये ।। ४६ ॥
अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया, रुक्खसंभवा, रुक्खवुक्कमा, तजोणिया, तस्संभवा तदुवक्कमा, कम्मोववण्णगा, कम्मणियाणेणं तत्थ-बुक्कमा रुक्खजोणिएहिं रुक्खेहिं अज्झारोहत्ताए विउटुंति, ते जीवा तेसिं रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति, ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव सारूविकडं संतं, अवरेवि य णं तेसिं रुक्खजोणियाणं अज्झारुहाणं सरीरा णाणावण्णा जावमक्खायं । ४७। ।
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