Book Title: Suyagadanga Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
अध्ययन ३
ये चारों प्रकार के जीव वनस्पति काय के जीव हैं। वे अपने-अपने बीजों से ही उत्पन्न होते हैं, दूसरे के बीज से दूसरे उत्पन्न नहीं होते हैं । जिस वृक्ष की उत्पत्ति के योग्य जो प्रदेश होता है उसी प्रदेश में वह वृक्ष उत्पन्न होता है अन्यत्र नहीं होता है तथा जिनकी उत्पत्ति के लिये जो जो काल, भूमि,
जल, आकाश प्रदेश और बीज अपेक्षित हैं उनमें से एक के न होने पर भी वे उत्पन्न नहीं होते हैं। इस .. प्रकार वनस्पति काय के जीव की उत्पत्ति में भिन्न-भिन्न काल, भूमि, जल और बीज आदि तो कारण हैं
ही, साथ ही कर्म भी कारण है क्योंकि कर्म से प्रेरित होकर ही जीव नानाविध योनियों में उत्पन्न होता है इसलिये शास्त्रकार कहते हैं कि - "कम्मोवगा" अर्थात् कर्म से प्रेरित होकर प्राणी वनस्पति काय में उत्पन्न होते हैं । वे वनस्पति काय के जीव यद्यपि अपने-अपने बीज और अपने-अपने सहकारी कारण 'काल आदि से ही उत्पन्न होते हैं तथापि वे पृथिवीयोनिक कहलाते हैं क्योंकि-उनकी उत्पत्ति के कारण जैसे बीज आदि हैं उसी तरह पृथिवी भी है, पृथिवी के बिना उनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है । पृथिवी . ही इनका आधार है अतः ये वृक्ष पृथिवीयोनिक हैं । ये जीव पृथिवी पर उत्पन्न होकर पृथिवी पर ही स्थित रहते हैं और वृद्धि को प्राप्त होते हैं । वे अपने कर्म से प्रेरित होकर उसी वनस्पति काय से आकर फिर उसी में उत्पन्न होते हैं । वे जिस पृथिवी में उत्पन्न होते हैं उसके स्नेह का आहार करते हैं तथा. जल, तेज, वायु और वनस्पति का भी आहार करते हैं । जैसे माता के पेट में रहने वाला बालक माता के पेट में स्थित पदार्थों का आहार करता हुआ भी माता को पीड़ित नहीं करता है इसी तरह वे वृक्ष पृथिवी के स्नेह का आहार करते हुए भी पृथिवी को पीड़ित नहीं करते हैं । उत्पत्ति के बाद पृथिवी से भिन्न वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श आदि से युक्त होने के कारण ये पृथिवी को चाहे कष्ट भी देते हों परन्तु उत्पत्ति के समय कष्ट नहीं देते हैं । वे वनस्पति काय के जीव अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों को अपने शरीर से दबा कर मार डालते हैं ये जीव, पहले आहार किये हुए पृथिवी आदि के शरीर को अपने रूप में परिणत कर डालते हैं । इनके पत्र, पुष्प, फल, मूल, शाखा और प्रशाखा आदि नाना वर्ण वाले नाना रस वाले और नाना रचना वाले और भिन्न-भिन्न गुण वाले होते हैं । यद्यपि शाक्य लोग इन स्थावरों को जीव का शरीर नहीं मानते हैं तथापि जीव का लक्षण जो उपयोग है उसकी सत्ता का वृक्षों में भी अनुभव की जाती है अतः इनके जीव होने की सिद्धि होती है । यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि - जिधर आश्रय होता है उसी ओर लता जाती है तथा विशिष्ट आहार मिलने पर वनस्पति की वृद्धि और आहार न मिलने पर उसकी (दुर्बलता) देखी जाती है । वृक्ष की शाखा काट लेने पर फिर वहाँ कोंपल निकल आता है तथा सब त्वचा उखाड़ लेने पर वह सूख जाता है । इन सब कार्यों को देखकर वनस्पति जीव है यह स्पष्ट सिद्ध होता है अतः वनस्पति को जीव न मानना भूल है। जीव अपने किये हुए कर्म से प्रेरित होकर वनस्पति काय में उत्पन्न होते हैं किसी काल या ईश्वर आदि से प्रेरित होकर नहीं, यह तीर्थंकर और गणधरों का सिद्धांत है ।। ४३ ॥
अहावरं पुरक्खायं इहेगइया सत्ता रुक्खजोणिया, रुक्खसंभवा, रुक्खवुकमा,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org